सनातन धर्म में प्रत्येक एकादशी का अपना अलग महत्व है, परंतु पितृपक्ष की Indira Ekadashi (इंदिरा एकादशी ) विशेष स्थान रखती है। यह तिथि केवल व्रत-उपवास की परंपरा नहीं, बल्कि आत्मा की मुक्ति का द्वार मानी जाती है। शास्त्र कहते हैं कि इस दिन किया गया उपवास, दान और पूजा पितरों की आत्मा को नरक से निकालकर स्वर्ग या बैकुण्ठ की ओर ले जाता है। यही कारण है कि इसे पितृमोक्षदिनी एकादशी भी कहा जाता है।
जब-जब यह तिथि आती है, लाखों लोग श्रद्धा से उपवास करते हैं और अपने पितरों की आत्मा को तृप्त करने का संकल्प लेते हैं। किंतु इस Indira Ekadashi के पीछे जो कथा है, वह उतनी ही प्रेरणादायी है जितनी रहस्यमयी। यह कथा हमें सिखाती है कि पुत्र की सच्ची श्रद्धा और एकादशी का पुण्य, यमलोक की जंजीरों को भी तोड़ सकता है।
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ToggleIndira Ekadashi की कथा
त्रेता युग में माहिष्मती नगरी का एक प्रतापी और धर्मनिष्ठ राजा हुआ करता था – राजा इन्द्रसेन। वे सत्यप्रिय, प्रजावत्सल और भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी और वे स्वयं भी नियमपूर्वक पूजा–पाठ, यज्ञ और दान करते थे। सब कुछ होते हुए भी उनके जीवन में एक ऐसा प्रसंग आया जिसने उनके हृदय को हिला दिया।
एक दिन उनकी सभा में देवर्षि नारद अचानक पधारे। राजा ने उनका विधिपूर्वक स्वागत किया और आने का कारण पूछा। नारदजी के मुख पर गम्भीरता थी। उन्होंने कहा –
“राजन! मैं कुछ दिन पूर्व यमलोक गया था। वहाँ आपकी पिताश्री से भेंट हुई। वे अत्यंत दुःख भोग रहे हैं। कारण यह है कि उनके जीवनकाल में एकादशी का व्रत भंग हो गया था।
इस कारण से वे स्वर्गलोक तक नहीं पहुँच पाए और यमराज के लोक में पीड़ा सह रहे हैं। उन्होंने मुझे संदेश देकर भेजा है कि आप आश्विन कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत करें और उसका पुण्य उन्हें अर्पित करें। ऐसा करने से उन्हें मुक्ति मिल जाएगी।”
नारदजी की यह वाणी सुनकर राजा इन्द्रसेन के हृदय में तूफ़ान उठ गया। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उनके धर्मात्मा पिता ऐसी दशा में होंगे। किंतु नारदजी ने स्पष्ट कहा – “राजन, एकादशी की शक्ति ऐसी है कि वह नरक के द्वार खोलकर पितरों को स्वर्ग तक पहुँचा देती है। यदि आप यह व्रत करेंगे तो आपके पिता अवश्य ही मुक्त हो जाएंगे।”
Indira Ekadashi व्रत का संकल्प
राजा ने उसी क्षण व्रत का संकल्प ले लिया। दशमी तिथि को उन्होंने नियमपूर्वक एक बार भोजन किया और मन, वचन, कर्म से शुद्ध रहने का संकल्प लिया। एकादशी के दिन प्रातः स्नान करके पीताम्बरधारी भगवान विष्णु की मूर्ति के सामने दीप प्रज्वलित किया, तुलसीदल चढ़ाया और मंत्रोच्चार के साथ विधिपूर्वक पूजा की। दिनभर उन्होंने जल और अन्न का त्याग किया, केवल हरिनाम का जप और भजन–कीर्तन किया। रातभर जागरण करते हुए वे भगवान की लीलाओं का गान सुनते रहे।
द्वादशी के दिन सूर्योदय के समय उन्होंने ब्राह्मणों को बुलाकर आदरपूर्वक भोजन कराया। स्वयं मौन रहकर गौदान किया और अनेक वस्तुओं का दान ब्राह्मणों और जरूरतमंदों को दिया। व्रत की पूर्णाहुति पर वे हाथ जोड़कर बोले –
“हे प्रभु! इस व्रत का सारा पुण्य मैं अपने पितरों को अर्पित करता हूँ। वे जहाँ कहीं भी हों, इस पुण्य से उन्हें शांति और मुक्ति प्राप्त हो।”
जैसे ही यह संकल्प पूरा हुआ, आकाशवाणी हुई –
“हे राजन! तुम्हारे पिता यमलोक से मुक्त होकर बैकुण्ठधाम को चले गए हैं। तुम्हारी भक्ति और एकादशी के व्रत ने उन्हें मोक्ष प्रदान किया है।”
यह वाणी सुनते ही राजा के नेत्रों से आँसू बह निकले। उन्हें लगा मानो उनके पिता स्वयं उनके सामने खड़े होकर आशीर्वाद दे रहे हों। पूरे राज्य में यह समाचार फैल गया। प्रजा ने भी देखा कि व्रत की शक्ति से नरक के बंधन टूट सकते हैं। तभी से आश्विन कृष्ण पक्ष की इस एकादशी का नाम Indira Ekadashi पड़ा और यह तिथि पितरों की मुक्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी गई।
समापन
इन्दिरा एकादशी की यह कथा केवल एक धार्मिक प्रसंग नहीं है, बल्कि यह हमें यह भी सिखाती है कि पूर्वजों के प्रति हमारी श्रद्धा कितनी आवश्यक है। प्रत्येक मानव अपने पितरों का ऋणी है – उनसे ही हमें शरीर, संस्कार और जीवन का आधार मिला है। शास्त्रों ने इसलिए पितृपक्ष और श्राद्ध की परंपरा बनाई ताकि हम अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर सकें। जब इस श्रद्धा में Indira Ekadashi का व्रत जुड़ता है, तो यह साधारण कर्म नहीं रह जाता बल्कि मोक्षदायी बन जाता है।
आज भी यदि कोई व्यक्ति इस एकादशी का उपवास करता है और उसका पुण्य अपने पितरों को समर्पित करता है, तो पितरों को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है और व्रती को स्वयं भी सुख, समृद्धि और अंततः मोक्ष का मार्ग मिलता है। यही कारण है कि संत-महात्मा कहते हैं – एकादशी केवल तिथि नहीं, आत्मा की उड़ान है।
Indira Ekadashi की कथा हमें याद दिलाती है कि सच्चे संकल्प और भगवान की भक्ति से असंभव भी संभव हो सकता है।
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