Shri Hit Chaurasi: 84 लाख योनियों से मुक्ति का दिव्य उपाय, गाओ… गाओ… और गाते रहो 

Shri Hit Chaurasi

चतुरासी (Shri Hit Chaurasi) जी दिव्य मंत्र हैं। हमारे अंदर विषय-वासना रूपी विष भर गया है। अब यदि हम नित्य चतुरासी जी ((Shri Hit Chaurasi) का पाठ करेंगे तो विकार रूपी यह विष धीरे-धीरे दूर हो जाएगा।

पहले जब गांव में किसी को सांप काट लेता था, तो विष को दूर करने के लिए झाड़-फूंक करने वाले लोग आते थे। जब वे लोग मंत्र जाप करते थे, तो क्या विष से पीड़ित व्यक्ति को उस समय कुछ समझ में आता था? नहीं, लेकिन चार-पांच घंटे की झाड़-फूंक के बाद वह व्यक्ति ठीक हो जाता था।

इसी तरह, जब पूज्य गुरु श्री प्रेमानंद जी ने एक वर्ष तक चतुरासी (Shri Hit Chaurasi) जी का पाठ किया, तो गुरु जी के मन में भी ऐसा ही प्रश्न उठा। गुरु जी ने अपने गुरुदेव से पूछा — “गुरुदेव, आपकी आज्ञा के अनुसार मैं चतुरासी (Shri Hit Chaurasi)जी का नित्य पाठ तो कर रहा हूं, पर मुझे इसमें कोई रस समझ में नहीं आता।”

क्योंकि मैं ज्ञान मार्ग का पथिक था, तो गुरुदेव ने उत्तर दिया — “तुम्हें केवल पाठ करना है। चतुरासी जी स्वयं सब ठीक कर देंगी। यह पाठ तुम्हें नौकरी की तरह करना है — निष्ठा और समर्पण के साथ। करते-करते तुम्हारे अंदर आसक्ति स्वयं आ जाएगी। तुम गाते रहो।

Shri Hit Chaurasi जी का नित्य पाठ करने से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होगा और 84 लाख योनियों में भटकने से छुटकारा मिल जाएगा। बस निश्चय करके प्रिया-प्रियालाल की प्रशंसा गाते रहो। वही सब संभाल लेंगे। तुम्हारा काम केवल गाना है। गाओ, गाओ और गाते रहो।

Shri Hit Chaurasi

श्री हित चौरासी (Shri Hit Chaurasi)

निगम अगोचर बात कहा कहीं अतिहि अनोखी ।

उभय मीत की प्रीति रीति चोखी ते चोखी॥
वृन्दावन छबि देखि देखि, हुलसत हुलसावत ।

जल-तरंगवत् गौर श्याम विलसत विलसावत ॥
ललितादिक निज सहचरी, निरखि निरखि बलि जात नित ।

चौरासी हित पद कहे, चतुरन की यह परम वित् ॥

1

जोई-जोई प्यारी करै सोई मोहि भावे, 

भावै मोहि जोई सोई-सोई करें प्यारे । 

मोकों तौ भावती ठौर प्यारे के नैनन में,

प्यारो भयौ चाहे मेरे नैनन के तारे ॥

मेरे तन मन प्राण हूँ ते प्रीतम प्रिय,

अपने कोटिक प्राण प्रीतम मोसों हारे ।

जै श्रीहित हरिवंश हंस हंसिनी साँवल -गौर

कहौ कौन करै जल तरंगनि न्यारे

2

प्यारे बोली भामिनी आजु नीकी जामिनी,
भेंट नवीन मेघ सौं दामिनी ॥

मोहन रसिक-राइरी माई,तासौं जु –
मान करे,ऐसी कौन कामिनी ।

जै श्रीहित हरिवंश श्रवण सुनत प्यारी,
राधिकारमण सौं मिली गज-गामिनी ॥

3

प्रात समय दोऊ रस लंपट, 
सुरत- जुद्ध जय जुत अति फूल

श्रम वारिज घनविन्दु वदन पर,
भूषण अंगहि अंग विकूल ॥

कछु रह्यौ तिलक सिथिल अलकावलि,

वदन कमल मानौं अलि भूल
जै श्रीहित हरिवंश मदन रंग रॅगि रहे,
वदन कमल मानौं अलि भूल ।

नैन-बैंन कटि सिथिल दुकूल

4

आजु तौ जुवति तेरी, वदन आनन्द भर्यो ,
पिय के संगम के सूचत सुख चैन ।

आलस वलित बोल, सुरंग रंगे कपोल,
विथकित अरुण उनींदे दोऊ नैन ।

रुचिर तिलक लेश किरत कुसुम केश,
सिर सीमंत भूषित मानौं तैं न

करुणाकर उदार राखत कछु न सार, 
दसन वसन लागत जब दैंन ॥

काहे कौं दुरत भीरु, पलटे प्रीतम चीर,
बस किये श्याम सिखै सत मैंन ।

गलित उरसि माल सिथिल किंकिनी जाल,
जै श्रीहित हरिवंश लता गृह सैंन ।

5

आजु प्रभात लता-मंदिर में, 
सुख बरसत अति हरषि युगल वर ।

गौर-श्याम अभिराम रंगभरे,
लटकि-लटकि पग धरत अवनि पर ॥

कुच कुमकुम रंजित मालावलि,
सुरत नाथ श्रीश्याम धाम धर ।

प्रिया प्रेम के अंक अलंकृत, 
चित्रित चतुर शिरोमनि निजकर ॥

दम्पति अति अनुराग मुदित कल,
गान करत मन हरत परस्पर ।

जै श्रीहित हरिवंश प्रशंस परायन,
गायन अलि सुर देत मधुर तर ॥

6

कौन चतुर जुवती प्रिया, 
जाहि मिलत लाल चोर है रैन ।

दुरवत क्योंऽव दुरै सुनि प्यारे,
रंग में गहिले चैन में नैन ॥

उर नख चंद्र विराने, पट अटपटे से बैन ।
जैश्रीहित हरिवंश रसिक राधापति, प्रमथित मैन।

7

आजु निकुंज मंजु में खेलत, नवल किशोर नवीन किशोरी ।

अति अनुपम अनुराग परस्पर,सुनि अभूत भूतल पर जोरी

विद्रुम फटिक विविध निर्मित धर, नव कर्पूर पराग न थोरी ।कोमल किसलय सयन सुपेसल,तापर श्याम निवेसित गोरी मिथुन हास-परिहास परायन,

पीक कपोल कमल पर झोरी ।

गौर-श्याम भुज कलह मनोहर, नीवी-बंधन मोचत डोरी

हरि उर-मुकुर विलोकि अपनपौ, विभ्रम विकल मान-जुत भोरी

चिबुक सुचारु प्रलोइ प्रबोधत,पिय प्रतिबिंब जनाय निहोरी 

नेति नेति बचनामृत सुनि-सुनि, ललितादिक देखत दुरि चोरी 

जै श्रीहित हरिवंश करत कर धूनन,प्रणयकोप मालावलि तोरी

8

अति ही अरुण तेरे नैन नलिन री 
आलस जुत इतरात रंगमगे,
भये निशि जागर मषिन मलिन री ॥

सिथिल पलक में उठत गोलक गति,
बिंधयौ मोहन मृग सकत चलि न री ।

जै श्रीहित हरिवंश हंस कल गामिनि,
संभ्रम देत भ्रमरन अलिन री ॥

9

बनी श्रीराधा-मोहन की जोरी।
इन्द्रनीलमणि श्याम मनोहर, 

सातकुम्भ तन गोरी ॥

भाल विशाल तिलक हरि कामिनि, 

चिकुर चंद्र बिच रोरी ।गज नायक प्रभु चाल गयंदनि, गति वृषभानु किसोरी ॥

नील निचोल जुवति मोहन पट, 

पीत अरुण सिर खोरी।

जै श्रीहित हरिवंश रसिक राधापति, 

सुरत रंग में बोरी ॥

10

आजु नागरी-किशोर भाँवती विचित्र जोर, 

कहा कहौं अंग-अंग परम माधुरी ।

करत केलि कंठ मेलि बाहुदंड गंड-गंड,
परस सरस रास-लास मंडली जुरी ॥

श्यामसुन्दरी बिहार, बाँसुरी मृदंग तार,
मधुर घोष नूपुरादि किंकिनी चुरी ।

जै श्री देखत हरिवंश आलि, 

निर्तनी सुधंग चाल,
वारि फेर देत प्राण देह सौं दुरी

11

मंजुल कल कुंज देश, 

राधा हरि विशद वेश, 

राका नभ कुमुद-बंधु शरद जामिनी ।

साँवल दुति कनक अंग, 

बिहरत मिलि एक संग,

नीरद मनौ नील मध्य लसत दामिनी ॥

अरुण पीत नव दुकूल, 

अनुपम अनुराग मूल,
सौरभयुत शीत अनिल मंद गामिनी ।

12

चलहि राधिके सुजान, 

तेरे हित सुख निधान, 

रास रच्यौ श्याम तट कलिंद नन्दिनी ।

निर्त्तत युवती समूह, राग-रंग अति कुतूह,
बाजत रसमूल मुरलिका अनन्दिनी ॥

वंशीवट निकट जहाँ, 

परम रमनि भूमि तहाँ,
सकल सुखद मलय बहै वायु मन्दिनी ॥

 

जाती ईषद विकास, 

कानन अतिसय सुवास,
राका निशि सरद मास विमल चंदिनी ॥

नरवाहन प्रभु निहारि, 

लोचन भरि घोष नारि,
नख-सिख सौन्दर्य काम-दुख-निकन्दिनी 

विलसहु भुज ग्रीव मेलि, 

भामिनी सुख-सिन्धु झेलि,

नव निकुंज श्याम केलि,जगत-वन्दिनी ॥

Shri Hit Chaurasi

13

नन्द के लाल हर्यौ मन मोर ।
हौं अपने मोतिन लर पोवत, 

काँकर डारि गयौ सखि भोर ॥

बंक विलोकनि चाल छबीली, 

रसिक शिरोमनि नन्द किशोर ।

कहि कैसे मन रहत श्रवन सुनि,

सरस मधुर मुरली की घोर ॥

इंदु गोविन्द वदन के कारन, 

चितवन कौं भये नैंन चकोर ।

जै श्री हित हरिवंश रसिक रस जुवती,

तू लै मिल सखी प्रान अकोर ॥

14

अधर अरुण तेरे कैसे के दुराऊँ ।
रवि ससि शंक भजन कियौ अपवस,  अद्भुत रंगन कुसुम बनाऊँ

सुभ कौसेय कसिव कौस्तुभमनि, 

पंकज सुतन लै अंगनु लुपाऊँ

हरषित इन्दु तजत जैसे जलधर, 

सो भ्रम ढूँढ़ि कहाँ हौं पाऊँ

अम्बुन दम्भ कछू नहीं व्यापत, 

हिमकर तपै ताहि कैसे कै बुझाउँ

हित हरिवंश रसिक नवरंग पिय, 

भृकुटी भौंह तेरे खंजन लराऊँ

15

अपनी बात मोसों कहि री भामिनी, 

औंगी मौंगी रहत गरव की माती।

हौं तोसौं कहत हारी, 

सुनिरी राधिका प्यारी,
निशि की रंग क्यौं न कहत लजाती ॥

गलित कुसुम बैनी, सुनिरी सारंग नैनी,
छूटी लट अचरा बढ़त अलसाती ।

अधर निरंग रंग रच्यौरी कपोलन, 

जुवति चलत गजगति अरुझाती ॥

रहसि रमी छबीले, रसन वसन ढीले,
शिथिल कसनि कंचुकी उर राती।

सखी  सौं सुनि श्रवन, वचन मुदित मन,

चली हरिवंश भवन मुसिकाती

16

आजु मेरे कहे चली मृगनैनी ।
गावत सरस जुवति मंडल में, 

पिय सौं मिलें भलैं पिकबैनी

परम प्रवीन कोक-विद्या में, 

अभिनय निपुन लाग गति लैनी

रूपरासि सुनि नवल किशोरी, 

पल-पल घटत चाँदनी रैनी

जै श्री हित हित हरिवंश चली अति आतुर, राधारवन सुरत सुख दैनी

रहसि रभस आलिंगन चुम्बन, 

मदन कोटि कुल भई कुचैनी

17

आजु देखि ब्रजसुन्दरी मोहन बनी केली ।
अंस-अंस बाहु दै, किशोर जोर रूप रासि,
मनौ तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि

नव निकुंज भ्रमर गुञ्ज, मंजु घोष प्रेम पुञ्ज,
गान करत मोर पिकन अपने सुर सों मेलि 

मदन मुदित अंग-अंग, बीच-बीच सुरत रंग,
पल-पल हरिवंश पिवत नैन चषक झेलि ॥

18

सुनि मेरी वचन छबीली राधा। 

तें पायौ रससिंधु अगाधा ॥

तू वृषभानु गोप की बेटी ।  

मोहनलाल रसिक हँसि भेटी ॥

जाहि बिरंचि उमापति नाये । 

तापै तैं वन फूल बिनाये ॥

जो रस नेति नेति श्रुति भाख्यौ ।

ताकी तैं अधर सुधारस चाख्यौ ॥

तेरी रूप कहत नहि आवै ।

जै श्री हित हरिवंश कछुक जस गावै ॥

19

खेलत रास रसिक ब्रज मण्डन । 

जुवतिन अंस दिये भुज दण्डन

सरद विमल नभ चन्द्र विराजै । 

मधुर-मधुर मुरली कल बाजे ॥

अति राजत घनश्याम तमाला । 

कंचन बेलि बनी ब्रजबाला ॥

बाजत ताल मृदंग उपंगा। 

गान मथत मन कोटि अनंगा ॥

भूषन बहुत विविध रंग सारी । 

अंग सुधंग दिखावत नारी ॥

बरसत कुसुम मुदित सुरयोषा । 

सुनियत दिवि ढुंदुभि कल घोषा ॥

 जै श्री हित हरिवंश मगन मन श्यामा  राधारवन  सकल सुख धामा ॥

20

मोहन लाल के रस माती ।
बधू गुपत-गोवत कत मोसौं, 

प्रथम नेह सकुचाती ॥

देख संभार पीत पट ऊपर, 

कहाँ चूनरी राती।

टूटी लर लटकत मोतिन की, 

नख बिधु अंकित छाती ॥

अधर-बिंब खंडित मषि मंडित, 

गंड चलत अरुझाती ।

अरुन नैन घूमत आलस जुत, 

कुसुम गलित लटपाती ॥

आजु रहसि मोहन सब लूटी, 

विविध आपुनी थाती।

जै श्री हित हरिवंश  वचन सुनिभामिनि,भवन चली मुसिकाती ।

21

तेरे नैंन करत दोऊ चारी ।
अति कुलकात समात नहीं कहुँ, 

मिले हैं कुञ्जबिहारी ॥

बिथुरी माँग कुसुम गिरि गिरि परै , 

लटकि रही लट न्यारी।

उर नख-रेख प्रगट देखियत है, 

कहा दुरावत प्यारी ॥

परी है पीक सुभग गंडन पर, 

अधर निरंग सुकुमारी ।

(जैश्री)हित हरिवंश रसिकनी भामिनि, आलस अँग अँग भारी ॥

22

नैनन पर वारों कोटिक खंजन ।
चंचल चपल अरुन अनियारे,
अग्रभाग बन्यौ अंजन ॥
रुचिर मनोहर वक्र बिलोकन,
सुरत- समर-दल-गंजन ।

(जैश्री) हित हरिवंश कहत न बनें छबि,
सुखसमुद्र-मनरंजन ॥

23

राधा प्यारी तेरे नैन सलोल ।

तैं निज भजन कनक तन जोवन,

 लियौ मनोहर मोल ॥

अधर निरंग अलक लट छूटी, 

रंजित पीक कपोल ।

तू रस मगन भई नहिं जानत, 

ऊपर पीत निचोल ॥

कुच युग पर नख-रेख प्रगट मानौं, 

शंकर सिर ससि-टोल ।

(जैश्री) हित हरिवंश कहत कछु भामिनि, अति आलस सौं बोल ॥

24

आजु गोपाल रास रस खेलत, पुलिन कल्पतरु तीर री सजनी ।

सरद विमल नभ चन्द्र विराजत, रोचक निविध समीर री सजनी ॥ 

चंपक बकुल मालती मुकुलित, मत्त मुदित पिक कीर री सजनी 

 

देसी सुधंग राग रंग नीकौ , 

ब्रज-जुवतिन की भीर री सजनी ॥

मघवा मुदित निसान बजायौ, 

व्रत छाँड्यौ मुनि धीर री सजनी।

(जैश्री)हित हरिवंश मगन मन श्यामा,

 हरत मदन घन पीर री सजनी ॥

 25

आज नीकी बनी श्रीराधिका नागरी 

ब्रज-जुवति-जूथ में रूप अरु चतुरई,
सील सिंगार गुन सबन तैं आगरी ॥

कमल दक्षिण भुजा, वाम भुज अंस सखि
गावती सरस मिलि मधुर स्वर राग री
सकल विद्या विदित, रहसि हरिवंश हित,
मिलत नव-कुञ्ज वर श्याम बड़भाग री 

26

मोहनी मदन गोपाल की बाँसुरी ।

माधुरी श्रवन पुट,सुनत सुनि राधिके ! 

करत रतिराज के ताप ताप कौ नासुरी ॥

सरद राका रजनि, विपिन वृन्दा सजनि, 

अनिल अति मंद सीतल सहित बासु री

परम पावन पुलिन, भंग सेवित नलिन,

कल्पतरु तीर बलवीर कृत रासु री ॥सकल मंडल भलीं, तुम जु हरि सौं मिलीं, 

बनी वर बनित उपमा कहीं कासु री ।

तुम जु कंचन तनी, लाल मर्कत मनी, 

उभय कल हंस हरिवंश बलि दासु री ॥

27

मधुऋतु  वृन्दावन आनंद न थोर ।
राजत नागरी नव कुशल किशोर ॥
जूथिका जुगल रूप मञ्जरी रसाल ।
विथकित अलि मधु-माधवी गुलाल ॥
चंपक बकुल कुल विविध सरोज ।
केतकी मेदिनी मद मुदित मनोज ॥
रोचक रुचिर बहै त्रिविध समीर
मुकुलित नूत नदत पिक-कीर ॥
पावन पुलिन घन मंजुल निकुञ्ज ।

 

किसलय सैन रचित सुख-पुञ्ज ॥

मंजीर मुरज डफ मुरली मृदंग ।
बाजत उपंग वीणा वर मुख चंग ॥

मृगमद मलयज कुमकुम अबीर

बंदन अगरसत सुरंगित  चीर ॥

गावत  सुन्दरि-हरि सरस धमार ।

पुलकित खग-मृग बहत  न वारि ॥

(जैश्री) हित हरिवंश हंस हंसिनी समाज ।
ऐसे ही करौ मिलि जुग जुग राज ॥

28

राधे देखि वन की बात ।
ऋतु बसन्त अनंत मुकुलित, 

कुसुम अरु फल पात ॥

वेनु धुनि नंदलाल बोली, 

सुनि व क्यों अरसात ।

करत कतव विलम्ब भामिनि, 

वृथा औसर जात ॥

लाल मर्कतमनि छबीलौ, 

तुम जु कंचन गात ।

बनी श्रीहित हरिवंश जोरी, 

उभय गुन गन-मात ॥

29

ब्रज नव तरुनि कदम्ब मुकुटमणि, 

श्यामा आजु बनी

नख शिख लौं अँग अंग माधुरी, 

मोहे श्याम धनी ॥

यौं राजत कवरी गूँथित कच, 

कनक कंज-वदनी

चिकुर चंद्रिकन बीच अर्थ बिधु, 

मानौं ग्रसित फनी ॥

सौभग रस सिर नवत पनारी,

 पिय सीमन्त ठनी ।

भृकुटि काम कोदंड नैन-सर, 

कज्जल रेख अनी ॥

तरल तिलक ताटक गंड पर, 

नासा जलज मनी।

दसन कुन्द सरसाधर पल्लव, 

प्रीतम मन समनी

चिबुक मध्य अति चारू सहज सखि, साँवल बिंदुकनी ।

प्रीतम प्रान रतन संपुट कुच, 

कंचुकि कसिब तनी ॥

भुज मृनाल बल हरत बलय जुत, 

परस सरस स्रवनी ।

श्याम सीस तरु मनु मिडवारी, 

रची रुचिर रवनी ॥

 

नाभि गंभीर मीन मोहन मन, 

खेलन कौं हृदनी ।

कृस कटि पृथु नितम्ब किंकिनि व्रत, कदलि-खंभ जघनी ॥

पद अम्बुज जावक जुत भूषन, 

प्रीतम उर अवनी ।

नव-नव भाय विलोभि भाम इभ, 

बिहरत वर करिनी ॥

(जैश्री) हित हरिवंश प्रसंसत श्यामा, 

कीरत विशद घनी ।

गावत स्रवनन सुनत सुखाकर,

 विश्व दुरित दवनी ॥

30

देखत नवनिकुञ्ज सुनि सजनी, 

लागत है अति चारु ।

माधविका केतकी लता लै, 

रच्यौ मदन आगारु ॥

सरद मास राका निशि 

सीतल मंद सुगन्ध-समीर ।

परिमल लुब्ध मधुब्रत विथकित, 

नदत कोकिला – कीर ॥

बहुविधि रंग मृदुल किसलय दल, 

निर्मित पिय सखि सेज ।

भाजन कनक विविध मधुपूरित, 

धरे धरनि पर हेज ॥

 

तापर कुसल किशोर-किशोरी, 

करत हास परिहास ।

प्रीतम पानि उरज वर परसत, 

प्रिया दुरावत वास ॥

कामिनि कुटिल भृकुटि अवलोकत, 

दिन प्रतिपद प्रतिकूल

आतुर अति अनुराग विवस हरि, 

धाइ धरत भुज मूल ॥

नागर नीबी बन्धन मोचत, 

ऐंचत नील निचोल ।

वधू कपट हठ कोप कहत कल, 

नेति नेति मधुबोल ॥

 

परिरम्भन विपरित रति वितरत, 

सरस सुरत निजुकेलि ।

इन्द्रनील मनिमय तरु मानौं, 

लसत कनक की बेलि ॥

रतिरन मिथुन ललाट पटल पर,

 श्रमजल-सीकर संग ।

ललितादिक अंचल झकझोरत, 

मन अनुराग अभंग ॥

जै श्रीहित हरिवंश यथामति बरनत, 

कृष्ण-रसामृत-सार ।

स्रवन सुनत प्रापक रति राधा, 

पद अम्बुज सुकुमार ॥

 

31

आज अति राजत दम्पति भोर । 

सुरत रंग के रस में भीने, 

नागरि नवल किशोर ॥ 

अंसन पर भुज दिये विलोकत, 

इन्दुबदन विवि ओर ।

करत पान रस मत्त परस्पर, 

लोचन तृषित चकोर ॥

छूटी लटन लाल मन करिष्यौ  , 

ये याके चित चोर ।

परिरम्भन-चुम्बन मिल गावत, 

सुर मंदर कलघोर ॥

पग डगमगत चलत वन बिहरत, 

रुचिर कुञ्ज घनखोर ।

जै श्रीहित हरिवंश लाल ललना मिलि, 

हियौ सिरावत मोर ॥

32

आजु वन क्रीड़त श्यामा श्याम ।

 सुभग बनी निशि शरद चाँदनी, 

रुचिर कुञ्ज अभिराम ॥

खंडन अधर करत परिरम्भन,

 ऐंचत जघन दुकूल ।

उर नख-पात तिरीछी चितवन, 

दंपति रस समतूल ॥
वे भुज पीन पयोधर परसत, 

वामदृशा पिय हार।

बसनन पीक अलक आकर्षत, 

समर स्रमित सतमार ॥

पल-पल प्रबल चौंप रस लम्पट, 

अति सुन्दर सुकुमार ।

(जैश्री)हित हरिवंश आजु तृण टूटत, 

हौं बलि विशद बिहार ॥

33

आजु वन राजत जुगल किशोर ।
नंदनंदन वृषभानु नन्दिनी उठे उनींदे भोर 

डगमगात पग परत सिथिल गति, 

परसत नख-ससि छोर ।

दसन-वसन खंडित मषि मंडित, 

गंड तिलक कछु थोर ॥

दुरत न कच करजन के रोके, 

अरुन नैन अलि चोर ।

(जैश्री) हित हरिवंश संभार न तन-मन, सुरत समुद्र झकोर ॥

 

34

वन की कुञ्जन-कुञ्जन डोलन ।
34निकसत निपट साँकरी बीथिन, 

परसत नाहि निचोलन ॥

प्रात काल रजनी सब जागे, 

सूचत सुख हग लोलन ।

आलसवन्त अरुण अति व्याकुल, 

कछु उपजत गति गोलन ॥

निर्तन भृकुटि बदन अम्बुज मृदु, 

सरस हास मधु बोलन ।

 

अति आसक्त लाल अलि लम्पट, 

बस कीने बिनु मोलन ॥

बिलुलित सिथिल श्याम छूटी लट,

 राजत रुचिर कपोलन ।

रति विपरित चुम्बन परिरम्भन,

 चिबुक चारु टक टोलन ॥

कबहुँ स्रमित किसलय सिज्या पर, 

मुख अंचल झक झोलन ।

दिन हरिवंश दासि हिय सींचत, 

वारिध केलि कलोलन ॥

35

झूलत दोऊ नवल किशोर ।
रजनी जनित रंग सुख सूचत, 

अंग-अंग उठि भोर ॥

अति अनुराग भरे मिलि गावत, 

सुर मंदर कल घोर ।

बीच-बीच प्रीतम चित चोरत, 

प्रिया नैन की कोर ॥

अबला अति सुकुमार डरत मन, 

वर हिंडोर झकोर ।

 

पुलकि पुलकि प्रीतम उर लागत, 

दै नव उरज अँकोर।

अरुझी विमल माल कंकन सौं, 

कुंडल सौं कच डोर ।

वेपथ जुत क्यौं बनें विवेचत, 

आनंद बढ़यौ  न थोर ॥

निरखि निरखि फूलत ललितादिक,

विवि मुख चन्द्र चकोर ।

दै असीस हरिवंश प्रसंसत, 

करि अंचल की छोर ॥

36

आज वन नीको रास बनायौ ।

पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट,

 मोहन बेनु बजायौ ॥

कल कंकन किंकिनि नूपुर धुनि, 

सुनि खग-मृग सचु पायौ ।

जुवतिनु मण्डल मध्य श्याम घन, 

सारंग राग जमायौ ॥

ताल मृदंग उपंग मुरज डफ, 

मिलि रस सिन्धु बढ़ायौ ।

विविध विसद वृषभानुनन्दिनी, 

अंग सुधंग दिखायौ ।

 

अभिनय निपुन लटकि लट लोचन, 

भृकुटि अनंग नचायौ 

ताताथेई ताथेई धरत नूतन गति, 

पति ब्रजराज रिझायौ

सकल उदार नृपति चूडामणि, 

सुख-वारिद बरसायी

परिरम्भन चुम्बन आलिंगन, 

उचित जुवतिजन पायौ

बरसत कुसुम मुदित नभनायक, 

इन्द्र निसान बजायौ

जैश्री हित हरिवंश रसिक राधापति,

जस-वितान जग छायौ

Shri Hit Chaurasi

37

चलहि किन मानिनि कुञ्ज कुटीर ।
तो बिनु कुँवर कोटि बनिता जुत, मथन मदन की पीर ॥
गद-गद सुर विरहाकुल पुलकित, स्रवत बिलोचन नीर ।
क्वासि क्वासि वृषभानु नन्दिनी, बिलपत विपिन अधीर ॥
वंशी विसिख व्याल मालावलि, पंचानन पिक कीर ।
मलयज गरल हुतासन मारुत, साखामृग रिपु चीर ॥
जैश्रीहित हरिवंश परम कोमल चित,चपल चली पिय तीर
सुनि भयभीत बज्र की पंजर, सुरत सूर रणधीर ॥
38
बेगि चलहि उठि गहर करत कत, निकुञ्ज बुलावत लाल ।

हा राधा-राधिका पुकारत, निरखि मदन गज ढाल ॥

करत सहाय शरद शशि मारुत, फूटि मिली उर माल ।

दुर्गम तकत समर अति कातर, करहि न पिय प्रतिपाल ॥

(जैश्री)हित हरिवंश चली अति आतुर, स्रवन सुनत तेहिकाल ।

लै राखे गिरि कुच बिच सुन्दर, सुरत-सूर ब्रजबाल ॥

39

खेल्यौ लाल चाहत रवन ।

रचि-रचि अपने हाथ सवाय, निकुञ्ज भवन ॥

रजनी सरद मंद सौरभ सौं, सीतल पवन ।

तो बिनु कुँवरि काम की वेदन, मेटव कवन ॥

चलहि न चपल बाल-मृगर्नैनी, तजिव मवन ।

जै श्रीहित हरिवंश मिलव प्यारे की,आरति-दवन ॥

40

बैठे लाल निकुञ्ज भवन ।
रजनी रुचिर मल्लिका मुकुलित, त्रिविध पवन ॥

तू सखि काम केलि मनमोहन, मदन दवन ।

वृथा गहर कत करत कृसोदरि, कारन कवन ॥

चपल चली तन की सुध बिसरी, सुनत श्रवन ।

जैश्रीहितहरिवंश मिले रस लंपट, राधिका रवन ॥

41
प्रीति की रीति रंगीलौई जानै ।
जद्यपि सकल लोक चूडामणि, दीन अपनपी मानै ॥

यमुना पुलिन निकुञ्जन भवन में, मान मानिनी ठानै ।

निकट नवीन कोटि कामिनि कुल,धीरज मनहि न आनै ॥

नस्वर नेह चपल मधुकर ज्यों, आन-आन सौं बानै ।

जैश्रीहित हरिवंश चतुर सोई लालहिं, छाँड़ि मैड़ पहिचानै

42

प्रीति न काहू की कानि विचारै ।
भारग अपमारग विथकित मन, को अनुसरत निवारै ॥

ज्यों सरिता सावन जल उमगत, सनमुख सिन्धु सिधारै ।

ज्यों नादहि मन दिये कुरंगन, प्रगट पारधी मारे ॥

जै श्रीहित हरिवंश हिलग सारंग ज्यों,सलभ सरीरहि जारै ।

नाइक निपुन नवल मोहन बिनु, कौन अपनपी हारे ॥
43
अति नागरि वृषभानु किशोरी ।
सुन दूतिका चपल मृगर्नैनी, आकर्षत चितवत चित गोरी ॥

श्रीफल उरज कंचन-सी देही, कटि केहरि गुण-सिंधु झकोरी

बैनी भुजंग चन्द्रसत बदनी, कदलि जंघ जलचर गति चोरी ॥

सुनि हरिवंश आज रजनी मुख, बन मिलाइ मेरी निज जोरी ।

जद्यपि मान समेत भामिनी, सुनि कत रहत भली जिय भोरी ॥
44
चलि सुन्दरि बोली वृन्दावन ।
कामिनि कण्ठ लागि किन राजहि, तू दामिनि मोहन नूतन घन ।

कंचुकि सुरंग विविध रंग सारी, नख जुग-ऊन बने तेरे तन
ये सब उचित नवल मोहन कौं, श्रीफल कुच जोवन आगम-धन ।

अतिसय प्रीति हुती अन्तर गति,जै श्रीहित हरिवंश चली मुकुलित मन
निविड़ निकुञ्जन मिले रस सागर, जीते सत रतिराज सुरत रन

45

आवत श्रीवृषभानु दुलारी 
रूप-रासि अति चतुर-शिरोमणि अंग-अंग सुकुमारी ॥

प्रथम उबटि मज्जन करि सज्जित, नील बरन तन सारी ।

गूँथित अलक तिलक कृत सुन्दर, सेंदुर माँग सवारी ॥

मृगज समान नैन अंजन जुत, रुचिर रेख अनुसारी ।
45
जटित लवंग ललित नासा पर, दसनावलि कृत कारी ॥

श्रीफल उरज कसूँभी कंचुकि कसि, ऊपर हार छबि न्यारी ।

कृस  कटि उदर गंभीर नाभिपुट, जघन नितम्बन भारी ॥

मनौं मृनाल भूषन भूषित भुज श्याम अंस पर डारी ।

जै श्रीहित हरिवंश जुगल करिनी-गज बिहरत वन पिय-प्यारी ॥

46

विपिन घन कुञ्ज रति केलि भुज मेलि रुचि,
श्याम-श्यामा मिले शरद की जामिनी ।
हृदै अति फूल सम तूल पिय नागरी,
करिनि-करि मत्त मनौं विविध गुन रामिनी
सरस गति हास परिहास आवेस बस,
दलित दल मदन-बल कोक रस कामिनी ।
जै श्रीहित हरिवंश सुनि लाल लावन्य भिदे,
प्रिया अति संग्रामिनी

47

बन की लीला लालहि भावै ।
पन-प्रसून बीच प्रतिबिंबहिं, नख सिख प्रिया जनावै ॥

सकुच न सकत प्रगट परिरम्भन, अलि लम्पट दुरि धावै ।

संभ्रम देत कुलक कल कामिनि, रति-रण-कलह मचावै ॥

उलटी सबै समुझि नैनन में, अंजन रेख बनावै ।

जै श्रीहित हरिवंश प्रीति रीति बस, सजनी श्याम कहावै ॥

48

बनी वृषभानु नन्दिनी आजु ।
भूषन-वसन विविध पहिरे तन, पिय मोहन हित साजु ॥

हाव-भाव लावन्य भृकुटि लट, हरत जुवति जन पाजु ।

ताल भेद औघर सुर सूचत, नूपुर किंकिणि बाजु ॥

नव निकुञ्ज अभिराम श्याम सँग, नीकौ बन्यौ समाजु ।

जै श्रीहित हरिवंश विलास रास जुत, जोरी अविचल राजु ॥

Shri Hit Chaurasi

49

देख सखी राधा पिय केलि
ये दोऊ खोरि खिरक गिरि गहवर,

बिहरत कुँवर कण्ठ भुज मेलि ये दोऊ नवलकिशोर रूप निधि, 

विटप तमाल कनक मनौं बेलि ।

अधर अदन चुम्बन परिरम्भन, 

तन पुलकित आनंद रस झेलि ॥

पट-बंधन कंचुकि कुच परसत,

कोप कपट निरखत कर पेलि ।

जै श्रीहित हरिवंश लाल रस लम्पट, 

धाइ धरत उर बीच सकेलि ॥
50
नवलनागरि नवलनागर किशोर मिलि,
कुञ्ज कोमल कमल दलन सिज्या रची।गौर-साँवल अंग रुचिर तापर मिले,
सरस मनि नील मनों मृदुल कंचन खची ॥सुरत नीवी निबन्ध हेतु प्रिय मानिनी,
प्रिया की भुजनि में कलह मोहन मची ।

सुभग श्रीफल उरज पानि परसत रोष,
हुँकार गर्व दृग-भंगि भामिनी लची ॥

कोक कोटिक रभस रहसि हरिवंश हित,
विविध कल माधुरी किमपि नाहिन बची ।प्रणयमय रसिक ललितादि लोचन चषक,
पिवत मकरंद सुख-रासि अंतर सची ॥

51

दान दै री नवल किशोरी ।
माँगत लाल लाड़िली नागर,

प्रगट भई दिन दिन की चोरी

नव नारंग कनक हीरावलि,

विद्रुम सरस जलज मनि गोरी

पूरित रस पीयूष जुगल घट, 

कमल कदलि खंजन की जोरी

तोपे सकल सौंज दामन की, 

कत सतरात कुटिल हग भोरी

नूपुर रव किकिंनी पिसुन घर,

जै श्रीहित हरिवंश कहत नहि थोरी

52
देखो माई, सुन्दरता की सींवा ।
ब्रज नव तरुनि कदंब नागरी,
निरखि करत अधग्रीवा ॥

जो कोऊ कोटि कलप लगि जीवै,
रसना कोटिक पावै ।

तूऊ रुचिर वदनारविंद की,
शोभा कहत न आवै ॥

 

देव लोक भू-लोक रसातल, 

सुनि कवि-कुल मति डरिये ।
सहज माधुरी अंग-अंग की,

कहि कासौं पटतरिये ॥
जैश्रीहित हरिवंश प्रताप रूप गुण,

वय बल श्याम उजागर ।
जाकी भू-विलास बस पशुरिव,
दिन विथकित रस सागर ॥

53

देखौ माई अबला के बल-रासि I
अति गज मत्त निरंकुश मोहन, 

निरखि बंधे लट-पासि ॥

अब ही पंगु भई मन की गति, 

बिनु उद्दिम अनियास ।

तब की कहा कहीं जब पिय प्रति, चाहत भृकुटि विलास ॥

कच संजमन व्याज भुज दरसत मुसिकन वदन विकास ।

हा हरिवंश अनीत रीत हित, 

कत डारत तन त्रास ॥
54
नयौ नेह नव रंग नयौ रस, 

नवल श्याम वृषभानु किशोरी

नव पीताम्बर नवल चूनरी, 

नई-नई बूँदन भीजत गोरी ॥

नव वृन्दावन हरित मनोहर, 

नव चातक बोलत मोर-मोरी ।

नव मुरली जु मलार नई गति, 

स्रवन सुनत आये घनघोरी ॥

नव भूषन नव मुकुट बिराजत, 

नई-नई उरप लेत थोरी-थोरी

जै श्रीहित हरिवंश असीस देत मुख, चिरजीवौ भूतल यह जोरी ॥
55
आजु दोऊ दामिनि मिलि बहसी ।
बिच लै श्याम घटा अति नूतन, 

ताके रंग रसी ॥

एक चमकि चहुँ ओर सखी री, 

अपने सुभाय लसी ।

आई एक सरस गहनी में, 

दुहुँ भुज बीच बसी ॥

अम्बुज नील उभय विधु राजत, 

तिनकी चलन खसी।

जै श्रीहित हरिवंश लोभ भेंटन मन, 

पूरन सरद ससी ॥

56

हौं बलिजाऊ नागरी श्याम । 
ऐसे ही रंग करौ निशि वासर,
वृन्दाविपिन कुटी अभिराम ॥

हास विलास सुरत रस सींचन,
पशुपति-दग्ध जिवावत काम ।

जै श्रीहित हरिवंश लोल लोचन अलि,
करहु न सफल सकल सुखधाम ॥

57

प्रथम यथामति प्रणऊँ, 

श्रीवृन्दावन अति रम्य 
श्रीराधिका कृपा बिनु, 

सबके मनन अगम्य ॥
वर यमुनाजल सींचन, 

दिनहीं सरद-बसंत ।
विविध भाँति सुमनस के, 

सौरभ अलि कुल मंत ॥
अरुन नूत पल्लव पर, 

कूजत कोकिल कीर ।
निर्तन करत सिखीकुल, 

अति आनन्द अधीर ॥
बहुत पवन रुचिदायक, 

शीतल मंद सुगंधु ।
अरुन नील-सित मुकुलित,

जहाँ तहाँ पूषन बन्धु ॥

अति कमनीय विराजत, 

मन्दिर नवल निकुञ्ज ।
सेवत सगन प्रीतिजुत, 

दिन मीनध्वज पुन ॥
रसिक रासि जहाँ खेलत, 

श्यामा श्याम किशोर ।
उभै बाहु परिरंजित, उ

ठे उनींदे भोर ॥
कनक कपिस पट शोभित, 

सुभग साँवरे अंग ।
नील वसन कामिनि उर, 

कंचुकी करूँभी सुरंग ॥
ताल रबाब मुरज डफ, 

बाजत मधुर मृदंग ।
सरस उकति गति सूचत, 

वर बँसुरी मुख चंग ॥

दोऊ मिलि चाँचर गावत, 

गौरी राग अलाप ।
मानस-मृग बल बेधत, 

भृकुटि धनुष दृग चाँप ॥
दोऊ कर तारिनु पटकत, 

लटकत इत उत जात ।
हो हो-होरी बोलत, 

अति आनंद कुलकात ॥
रसिक लाल पर मेलत, 

कामिनि बंदन धूरि ।
पिय पिचकारिनु छिरकत, 

तकि तकि कुमकुम पूरि ॥
कबहु-कबहुँ चन्दन तरु, 

निर्मित तरल हिंडोल ।
चढ़ि दोऊ जन झूलत, 

फूलत करत कलोल ॥

वर हिंडोल झकोरन, 

कामिनि अधिक डरात ।
पुलकि पुलकि वेपथ अँग, 

प्रीतम उर लपटात ॥
हित चिंतक निज चेरिनु, 

उर आनन्द न समात ।
निरखि निपट नैनन सुख, 

तृण तोरत बलि जात ॥
अति उदार विवि सुन्दर, 

सुरत सूर सुकुमार ।
जै श्रीहित हरिवंश करौ दिन, 

दोऊ अचल बिहार ॥

58

तेरे हित लैन आई, वन तें श्याम पठाई,
हरत कामिनि घन कदन काम कौ ।

काहे कौं करत बाधा, सुन री चतुर राधा,
भेटि कैं मेटि री माई प्रगट जगत भौ ।
देखि री रजनी नीकी, रचना रुचिर पी की,
पुलिन नलिन नभ उदित रोहिनी धौ ।

 

तू तौऽव सखी सयानी, 

तैं मेरी एकी न मानी,
हौंतोसौं कहत हारी जुवति जुगति सौं ॥मोहन लाल छबीली, अपने रंग रंगीली,
मोहत बिहंग पशु मधुर मुरली रौ ।

ते तौऽव गनत तन जीवन जोवन तव,
जै श्रीहित हरिवंश हरि 

भजहि भामिनि जौ ।
59
यह जु एक मन बहुत ठौर करि, 

कहि कौनें सचु पायौ ।

जहाँ-तहाँ विपति जार जुवती लौं, 

प्रगट पिंगला गायी ॥

है तुरंग पर जोर चढ़त हठ, 

परत कौन पै धायौ ।

कहि धौं कौन अंक पर राखै, 

जो गनिका सुत जायौ ॥

जैश्रीहित हरिवंश प्रपंच बंच सब, 

काल व्याल की खायौ ।

यह जिय जानि श्याम श्यामा पद, 

कमल संगी सिर नायौ ॥

60

कहा कहीं इन नैनन की बात 
ये अलि प्रिया-वदन अम्बुज रस, 

अटके अनत न जात ॥

जब-जब रुकत पलक सम्पुट लट, 

अति आतुर अकुलात ।

लंपट लव निमेष अन्तर तें, 

अलप कलप सत सात ॥

श्रुति पर कंज हगंजन कुच बिच, 

मृगमद है न समात ।

जैश्रीहितहरिवंश नाभि सर-जलचर, 

जाँचत साँवल गात ॥

 

61

आजु सखी वन में जु बने प्रभु, 

नाचत हैं ब्रजमंडन ।

वैस किशोर जुवति अंसन पर, 

दिये विमल भुज दंडन ॥

कोमल कुटिल अलक सुठि शोभित, अवलम्बित युग गंडन ।

मानहुँ मधुप थकित रस लम्पट, 

नील कमल के खंडन ॥

हास-विलास हरत सबको मन, 

काम समूह विहंडन ।

जै श्रीहित हरिवंश करत अपनौं जस, प्रगट अखिल ब्रह्मण्डन ॥
खेलत रास दुलहिनी दूलहु ।
62
सुनहु न सखी सहित ललितादिक,
निरखि निरखि नैनन किन फूलहु ॥अति कल मधुर महा मोहन धुनि,
उपजत हंस सुता के कूलहु ॥

थेई थेई वचन मिथुन मुख निसरत,
सुनि-सुनि देह दशा किन भूलहु ॥


मृदु पदन्यास उठत कुंकुम रज, अद्भुत बहुत समीर दुकूलहु ।

कबहुँ श्याम श्यामा दसनांचल, 
कच-कुच हार छुवत भुजमूलहु ॥

अति लावन्य रूप अभिनय गुन,
नाहिन कोटि काम समतूलहु ।

भृकुटि विलास हास रस बरसत,
जै श्रीहित हरिवंश प्रेम रस झूलहु ॥

63

मोहन मदन त्रिभंगी। 

मोहन मुनि-मन-रंगी।
मोहन मुनि सघन प्रगट परमानन्द, गुन गंभीर गुपाला ।

सीस किरीट श्रवण मणि कुण्डल, 

उर मंडित वनमाला ॥

पीताम्बर तन धातु विचित्रित, कल किंकिनि कटि चंगी।

नख मनि तरनि चरन सरसीरुह, मोहन मदन त्रिभंगी ॥
63
मोहन बेनु बजावै । 

इहि रव नारि बुलावै ।
आईं ब्रज नारि सुनत वंशी-रव, 

ग्रह पति बंधु बिसारेदरसन मदन गुपाल मनोहर, मनसिज ताप निवारे ॥हरषित वदन बंक अवलोकन, 

सरस मधुर धुनि गावै
मधुमय श्याम समान अधर धरि, मोहन बेनु बजावै ।
63
रास रच्यौ वन माहीं। 

विमल कलपतरु छाहीं ।

विमल कलपतरु तीर सुपेसल,

 शरद रैन वर चन्दा

शीतल मंद सुगंध पवन बहै, 

तहाँ खेलत नंदनन्दा ॥

अद्भुत ताल मृदंग मनोहर, 

किंकिनि शब्द कराहीं ।

यमुना पुलिन रसिक रस-सागर, 

रास रच्यौ वन माहीं

63

देखत मधुकर केली। 

मोहे खग मृग बेली ।
मोहे मृग धेनु सहित सुर-सुन्दरि, 

प्रेम मगन पट छूटेउडुगन चकित थकित शशिमंडल,

कोटि मदन मन लूटेअधर पान परिरंभन अति रस, 

आनंद मगन सहेलीजै श्रीहित हरिवंश रसिक सचु पावत, 

देखत मधुकर केली
64
बेनु माई बाजै वंशीवट ।
सदा बसंत रहत वृन्दावन, 

पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट ॥जटित क्रीट मकराकृत कुण्डल, 

मुख अरविन्द भँवर मानों लट ।दसनन कुंद कली छबि लज्जित, सज्जित कनक समान पीत पट ॥

मुनि मन ध्यान धरत नहिं पावत, करत विनोद संग बालक भट ।

दास अनन्य भजन रस कारन, जै श्रीहित हरिवंश प्रगट लीला नट ॥
मदन मथन घन निकुञ्जन खेलत हरि,

65
राका रुचिर शरद रजनी ।

बाजत मृदु मृदंग नाचत सबै सुधंग,
तैं न श्रवन सुन्यौ बेनु बजनी ।

जै श्रीहित हरिवंश प्रभु 

राधिका रवन मोकौं,
यमुना पुलिन तट, 

सुर तरु के निकट,
रचित रास चलि मिलि सजनी
भावै माई जगत भगत भजनी ॥

66

बिहरत दोऊ प्रीतम कुञ्ज ।
अनुपम गौर-श्याम तन शोभा, 

वन बरसत सुख पुन ॥

अद्भुत खेत महा मनमथ की, 

ढुंदुभि भूषन-राव ।

जूझत सुभट परस्पर अँग अँग, उपजत कोटिक भाव ॥

भर संग्राम स्रमित अति अबला, निद्रायत कल नैन ।

प्रिय के अंक निसंक तंक तन, 

आलस जुत कृत सैन ।
66
लालन मिस आतुर पिय परसत, 

उरू नाभि उरजात ।

अद्भुत छटा विलोकि अवनि पर, विथकित वेपथ गात ॥

नागरि निरखि मदन विष व्यापत, दियौ सुधाधर धीर ।

सत्वर उठे महा मधु पीवत, 

मिलत मीन मिव नीर ॥

अबही मैं मुख मध्य बिलोके, 

बिंबाधर सु रसाल ।

जाग्रत ज्यों भ्रम भयौ पर्यो मन, 

सत मनसिज कुल जाल ॥
66
सकृदपि मयि अधरामृत मुपनय, सुन्दरि सहज सनेह ।

तव पद पंकज कौ निज मंदिर, 

पालय सखि मम देह ॥

प्रिया कहत कहु कहाँ हुते पिय, नवनिकुञ्जन-वर-राज ।

सुन्दर वचन रचन कत बितरत, 

रति लंपट बिनु काज ॥

66

इतनौं श्रवन सुनत मानिनि मुख, अन्तर रह्यौ न धीर ।

मति कातर विरहज दुख व्यापत, बहुतर स्वाँस समीर ॥

जै श्रीहित हरिवंश भुजन आकर्ष, 

ले राखे उर माँझ ।

मिथुन मिलत जु कछुक सुख उपज्यौ,लुटि लवमिव भई साँझ ॥

67
रुचिर राजत वधू कानन किशोरी ॥
सरस सोडस किये 

तिलक मृगमद दिये,
मृगज लोचन उबटि अंग शिर खोरी ॥
गंड पंडीर मंडित चिकुर चंद्रिका,
मेदिनी कवरि गूँथित सुरंग डोरी
श्रवन ताटंक के चिबुक पर बिंदु दै,
कसूँभी कंचुकि दुरे उरज फल कोरी

67
बलय कंकन दोत नखन जावक जोत,
उदर गुन रेख, पट नील, कटि थोरी ।सुभग जघन स्थली 

कुनित किंकिनि भली,
कोक संगीत रस-सिंधु झक झोरी ॥विविध लीला रचित 

रहसि हरिवंश हित,
रसिक सिरमौर राधा रवन जोरी ।भृकुटि निर्जित मदन 

मंद सस्मित वदन,
किये रस विवस 

घनस्याम पिय गोरी ॥

68

रास में रसिक मोहन बने भामिनी ।
सुभग पावन पुलिन 

सरस सौरभ नलिन,
मत्त मधुकर निकर 

शरद की जामिनी ॥

त्रिविध रोचक पवन 

ताप दिनमनि दवन,
तहाँ ठाढ़े रवन संग सत कामिनी।ताल बीना मृदंग सरस नाचत सुधंग,
एक मैं एक संगीत की स्वामिनी ॥

68
राग रागिनि जमी 

विपिन बरसत अमी,
अधर बिंबन रमी 

मुरलि अभिरामिनी ।
लाग कट्टर उरप सप्त सुर सौं सुलप
लेति सुंदर सुघर राधिका नामिनी ॥तत्त थेई थेई करत गतिव नूतन धरत,
पलटि डगमग ढरति मत्त गज गामिनी ।धाइ नवरंग धरी उरसि राजत खरी,
उभय कल हंस 

हरिवंश घन दामिनी ॥

69
मोहिनी मोहन रंगे प्रेम सुरंगे,

मत्त मुदित कल नाचत सुधंगे ।

सकल कला प्रवीन, 

कल्यान रागिनी लीन,
कहत न बनै माधुरी अंग-अंगे ॥

तरनि तनया तीर, 

त्रिविध सखी समीर,

69

 

मानौं मुनि व्रत धर्यो 

कपोती कोकिला कीर ।

नागरि नवकिशोर, 

मिथुन मनसि चोर,
सरस गावत दोऊ मंजुल मन्दर घोर ॥कंकन-किंकिनि धुनि, 

मुखर नूपुरन सुनि,
जै श्रीहित हरिवंश 

रस बरसै नव-तरुनि ॥
आजु सम्हारत नाहिन गोरी ।
फूली फिरत मत्त करिनी ज्यौं,
70
पर करुन अमा रस बरसत,
सुरत – समुद्र झकोरी ॥
आलस बलित अरुन धूसर मषि,
प्रगट करत हग चोरी ।

पिय पर करुन अमी
अधर अरुनता थोरी ॥


बाँधत भंग उरज अम्बुज पर, 
अलक निबन्ध किशोरी ।

संगम किरच किरच कंचुकि बैद,
सिथिल भई कटि डोरी ॥

देत असीस निरखि जुवतीजन,
जिनकै प्रीति न थोरी ।

जै श्रीहित हरिवंश विपिन भूतल पर,
संतत अविचल जोरी ॥

71

श्याम सँग राधिका रासमण्डल बनी ।
बीच नंदलाल ब्रजबाल चंपक बरन,
ज्योंव घन तड़ित 

बिच कनक मर्कतमनी ॥
लेत गति मान तत्त थेई हस्तक भेद,
सरे ग म प ध नि ये सप्त सुर नादनी।


निर्त्त रस पहिर पट 

नील प्रकटित छबी 
बदन जनु जलद में मकर की चाँदनी ॥राग रागिनि तान मान संगीत मत,
थकित राकेश नभ शरद की जामिनी ।जै श्रीहित हरिवंश प्रभु हंस कटि केहरी,
दुरि कृत मदन मद मत्त गजगामिनी ॥

72

सुन्दर पुलिन सुभग सुखदायक ।
नव-नव घन अनुराग परस्पर,
खेलत कुँवर नागरी नायक ॥
शीतल हंससुता रस बीचिन,
परसि पवन सीकर मृदु बरसत ।
वर मन्दार कमल चंपक कुल,
सौरभ सरस मिथुन मन हरसत ॥

 

सकल सुधंग विलास परावधि, 
नाचत नवल मिले सुर गावत ।

मृगज मयूर मराल भ्रमर पिक,
अद्भुत कोटि मदन सिर नावत ।निर्मित कुसुम सयन मधु पूरित,
भाजन कनक निकुञ्जन विराजत
रजनी-मुख सुख-राशि परस्पर,
सुरत समर दोऊ दल साजत

विट-कुल-नृपति किशोरी कर धृत, 
बुधि बल नीवी बंधन मोचत ।

नेति-नेति वचनामृत बोलत,
प्रणय कोप प्रीतम नहिं सोचत ॥
जै श्रीहित हरिवंश 

रसिक ललितादिक,
लता-भवन रंध्रन अवलोकत ।

अनुपम सुख भर भरित विवस असु,
आनन्द वारि कण्ठ दृग रोकत ॥

Shree Hit Chaurasi

73

खंजन मीन मृगज मद मेंटत,
कहा कहौं नैननिं की बातैं।
सनी सुंदरी कहाँ लौं सिखईं,
मोहन बसीकरन की घातैं।
बंक निसंक चपल अनियारे,
अरुन स्याम सित रचे कहाँ तैं।
डरत न हरत परयौ सर्वसु
मृदु मधुमिव मादिक दृग पातैं॥
नैंकु प्रसन्न दृष्टि पूरन करि,
नहिं मोतन चितयौ प्रमदा तैं।
(जै श्री) हित हरिवंश हंस कल गामिनि,
भावै सो करहु प्रेम के नातैं।

74

काहे कौं मान बढ़ावतु है बालक मृग लोचनि।
हौंब डरनि कछु कहि न सकति इक बात सँकोचनी ।
मत्त मुरली अंतर तव गावत जागृत सैंन तवाकृति सोचनि।
(जै श्री) हित हरिवंश महा मोहन पिय आतुर विट विरहज दुख मोचनि 

75

हौं जु कहति इक बात सखी,
सुनि काहे कौं डारत?
प्रानरमन सौं क्यौंऽब करत,
आगस बिनु आरत।।
पिय चितवत तुव चंद वदन तन,
तूँ अधमुख निजु चरन निहारति।
वे मृदु चिबुक प्रलोइ प्रबोधत,
तूँ भामिनि कर सौं कर टारति।।
विबस अधीर विरह अति कतर सर
औसर कछुवै न विचारति।
(जै श्री) हित हरिवंश रहसि प्रीतम मिलि,
तृषित नैंन काहे न प्रतिपारति।।

76

नागरीं निकुंज ऐंन किसलय दल रचित सैंन,
कोक कला कुसल कुँवरि अति उदार री।
सुरत रंग अंग अंग हाव भाव भृकुटि भंग,
माधुरी तरंग मथत कोटि मार री।
मुखर नूपुरनि सुभाव किंकनी विचित्र राव,
विरमि विरमि नाथ वदत वर विहार री।
लाड़िली किशोर राज हंस हंसिनी समाज,
सींचत हरिवंश नैंन सुरस सार री।

77

लटकति फिरति जुवति रस फूली।
लता भवन में सरस सकल निसि,
पिय सँग सुरत हिंडोरे झूली।।
जद्दपि अति अनुराग रसासव
पान विवस नाहिंन गति भूली।
आलस वलित नैंन विगलित लट,
उर पर कछुक कंचुकी खूली।।
मरगजी माल सिथिल कटि बंधन,
चित्रित कज्जल पीक दुकूली।
(जै श्री) हित हरिवंश मदन सर जरजर ,
विथकित स्याम सँजीवन मूली।

78

सुधंग नाचत नवल किसोरी।
थेई थेई कहति चहति प्रीतम दिसि,
वदन चंद मनौं त्रिषित चकोरी।।
तान बंधान मान में नागरि
देखत स्याम कहत हो हो होरी।
(जै श्री) हित हरिवंश माधुरी अँग अँग,
बरवस लियौ मोहन चित चोरी।

79

रहसि रहसि मोहन पिय के संग री,
लड़ैती अति रस लटकति।
सरस सुधंग अंग में नागरि,
थेई थेई कहति अवनि पद पटकति।।
कोक कला कुल जानि सिरोमनि,
अभिनय कुटिल भृकुटियनि मटकति।
विवस भये प्रीतम अलि लंपट,
निरखि करज नासा पुट चटकति ॥
गुन गनु रसिक राइ चूड़ामनि
रिझवति पदिक हार पट झटकति।
(जै श्री) हित हरिवंश निकट दासीजन,
लोचन चषक रसासव गटकति

।।80।।

वल्लवी सु कनक वल्लरी तमाल स्याम संग,
लागि रही अंग अंग मनोभिरामिनी।
वदन जोति मनौं मयंक अलका तिलक छबि कलंक,
छपति स्याम अंक मनौं जलद दामिनी।।
विगत वास हेम खंभ मनौं भुवंग वैनी दंड,
पिय के कंठ प्रेम पुंज कुंज कामिनी।
(जै श्री) सोभित हरिवंश नाथ साथ सुरत आलस वंत,
उरज कनक कलस राधिका सुनामिनी

।।81।।

वृषभानु नंदिनी मधुर कल गावै।
विकट औंघर तान चर्चरी ताल सौं,
नंदनंदन मनसि मोद उपजावै।।
प्रथम मज्जन चारु चीर कज्जल तिलक,
श्रवण कुंडल वदन चंदनि लजावै।
सुभग नकबेसरी रतन हाटक जरी,
अधर बंधूक दसन कुंद चमकावै।।
वलय कंकन चारु उरसि राजत हारु,
कटिव किंकिनी चरन नूपुर बजावै।
हंस कल गामिनी मथति मद कामिनी,
नखनि मदयंतिका रंग रुचि द्यावे ।।
निर्त्त सागर रभसि रहसि नागरि नवल,
चंद चाली विविध भेदनि जनावै।
कोक विद्या विदित भाइ अभिनय निपुन,
भू विलासनि मकर केतनि नचावै।।
निविड़ कानन भवन बाहु रंजित रवन,
सरस आलाप सुख पुंज बरसावै।
उभै संगम सिंधु सुरत पूषन बधु,
द्रवत मकरंद हरिवंश अली पावै

।।82।।

नागरता की राशि किसोरी।
नव नागर कुल मौलि साँवरी,
वर बस कियो चितै मुख मोरी।।
रूप रुचिर अंग अंग माधुरी,
विनु भूषन भूषित ब्रज गोरी।
छिन छिन कुसल सुधंग अंग में,
कोक रमस रस सिंधु झकोरी।
चंचल रसिक मधुप मौंहन मन.
राखे कनक कमल कुच कोरी।
प्रीतम नैंन जुगल खंजन खग,
बाँधे विविध निबंध डोरी।
अवनी उदर नाभि सरसी में,
मनौं कछुक मदिक मधु घोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश पिवत सुंदर वर,
सींव सुदृढ़ निगमनि की तोरी

।।83।।

छाँड़िदैं मानिनी मान मन धरिबौ।
प्रनत सुंदर सुघर प्रानवल्लभ नवल,
वचन आधीन सौं इतौ कत करिबौं। ।
जपत हरि विवस तव नाम प्रतिपद विमल,
मनसि तव ध्यान ते निमिष नहिं टरिबौ।
घटति पलु पलु सुभग सरद की जामीनी,
भामिनी सरस अनुराग दिसि ढरिबौ।।
हौं जु कहति निजु बात सुनो मनि सखि,
सुमुखि बिनु काज घन विरह दुख भरी वै।
मिलत हरिवंश हित’ कुंज किसलय सयन,
करत कल केलि सुख सिंधु में तिरिबौ

।।84॥

आजुब देखियत है हो प्यारी रंग भरी।
मोपै न दुरति चोरी वृषभानु की किशोरी;
सिथिल कटि की डोरी,नंद के लालन सौं सुरत लरी।।
मोतियन लर टूटी चिकुर चंद्रिका छूटी
रहसि रसिक लूटी गंडनि पीक परी।
नैननि आलस बस अधर बिंब निरस;
पुलक प्रेम परस हित हरिवंश री राजत खरी

यह विचार एकान्तिक वार्ता 836, पूज्य प्रेमानंद जी से प्रेरित है। अधिक जानने के लिए, यहां देखें:  https://www.youtube.com/watch?v=TB5JEJ8DvWk&t=1175s

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1 thought on “Shri Hit Chaurasi: 84 लाख योनियों से मुक्ति का दिव्य उपाय, गाओ… गाओ… और गाते रहो ”

  1. Hari Om! This beautiful story truly melts the heart and deepens my love for Lord Krishna. His Leelas are so captivating and full of divine wisdom. Feeling immense peace and devotion after reading this. Thank you for sharing!
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    Option 2 (Focus on Inspiration and Wisdom):
    > Jai Shri Krishna! Another powerful reminder of the Lord’s grace and teachings. This story offers such valuable lessons on [mention a specific theme from the story, e.g., surrender, faith, or the nature of devotion]. Truly inspiring and helps in navigating life’s journey.
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    >

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