Samudra Manthan: देवी लक्ष्मी का अवतरण और धनतेरस का आरंभ

Depiction of Samudra Manthan, the churning of the cosmic ocean by devas and asuras with Mount Mandara and Vasuki; Vishnu overseeing the process in Hindu mythology.

जब देवता और दैत्य — दोनों एक साथ बैठे हों, जब समुद्र की गहराइयों में छिपे हों अमरत्व के रहस्य,
और जब स्वयं भगवान विष्णु, शिव और लक्ष्मी उस लीला के साक्षी बनें — तो समझिए, वह केवल एक कथा नहीं, बल्कि सृष्टि के संतुलन की महान गाथा है।

यह है  Samudra Manthan की amazing Story —एक समय देवराज इन्द्र सम्पूर्ण लोकपालों तथा ऋषियों के साथ शांत और धर्मयुक्त सभा में बैठे थे। उसी समय बृहस्पति जी अपने शिष्यों के साथ देवसभा में पधारे। उन्हें उपस्थित देखकर देवताओं ने तुरंत उनके चरणों में मस्तक झुकाया। 

इन्द्र ने भी देखा कि गुरुदेव बृहस्पति जी आगे खड़े हैं, किंतु उनके मन में राजसत्ता और अहंकार का प्रभाव व्याप्त था। इसलिए उन्होंने गुरु के प्रति न तो आदरयुक्त वचन कहे, न उन्हें आमंत्रित किया, न बैठने के लिए आसन प्रदान किया, और न ही विदा करने की बात कही।

इन्द्र के इस व्यवहार से, जो उनके राज्य और शक्ति के मद में उन्मत्त हो गए थे, गुरु बृहस्पति अत्यंत क्रोधित होकर वहां से अंतर्ध्यान हो गए। उनके चले जाने पर देवताओं के हृदय में गहरा खेद हुआ। यक्ष, नाग, गन्धर्व और ऋषिगण भी उदास हो उठे। नृत्य और गीत समाप्त होने पर जब इन्द्र सचेत हुए, तब उन्होंने देवताओं से पूछा—“महातपस्वी गुरुदेव कहां चले गए?

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Samudra Manthan: गुरु के अनादर का परिणाम और देवताओं की शिक्षा

तब नारदजी ने गंभीर स्वर में कहा—“बलसूदन! निस्संदेह आपके द्वारा गुरु की अवहेलना हुई है। इस कारण उन्होंने अपने क्रोध में वहां से प्रस्थान कर लिया।”

गुरु के अनादर से राज्य अपने हाथ से चला जाता है। अतः आपको चाहिए कि आप सब प्रकार से प्रयत्न कर अपने गुरु से अपने अपराध के लिए क्षमा-याचना करें।

महात्मा नारद की यह बात सुनकर इन्द्र सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए और अपने सभी सभासदों को साथ लेकर बड़ी उतावली से गुरु के निवास स्थान पर पहुँचे। अब इन्द्र अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण जागरूक हो चुके थे।

वहाँ पहुँचकर उन्होंने गुरु-पत्नी तारादेवी को प्रणाम किया और विनम्रतापूर्वक पूछा— “देवि! महातपस्वी गुरुजी कहाँ गए हैं?”

तारा ने इन्द्र की ओर देखकर उत्तर दिया—“मैं नहीं जानती।” यह सुनकर इन्द्र चिन्तामग्न हो अपने घर लौट आए।

इन्द्र का पतन, स्वर्ग के रत्नों का समुद्र में गिरना 

उसी समय स्वर्ग में अनेक अद्भुत और अनिष्टसूचक अपशकुन होने लगे, जो सम्पूर्ण स्वर्गवासियों और दुरात्मा इन्द्र के लिए दुःखप्राप्ति के सूचक थे।

इन्द्र के उस अनुचित आचरण का समाचार पाताल के राजा बलि तक भी पहुँचा। यह सुनते ही बलि ने दैत्यों की विशाल सेना संगठित की और पाताल से अमरावतीपुरी की ओर प्रस्थान किया।

उस समय देवताओं और दानवों के बीच एक भीषण युद्ध हुआ, जिसमें दैत्यों ने देवताओं को परास्त कर दिया। क्षणमात्र में ही दूषित हृदय और अविवेक से ग्रस्त इन्द्र अपना समस्त राज्य—सप्तद्वीपों सहित—दैत्यों के अधिकार में खो बैठे।

विजयी दैत्य शीघ्र ही पाताल लौट गए। यह विजय केवल उनके गुरु शुक्राचार्य की कृपा से ही संभव हुई थी।

अब इन्द्र की राज्यलक्ष्मी उनसे दूर हो चुकी थी। फलस्वरूप, देवताओं ने भी उनका त्याग कर दिया। श्रीहीन इन्द्र स्वर्गलोक से अन्यत्र चले गए, और उनकी कमल-नयनी पत्नी शची भी लोगों की दृष्टि से छिपकर रहने लगीं।

एरावत नामक महान गजराज, उच्चैःश्रवा अश्व तथा अन्य अनेक दिव्य रत्नों को लोभवश दुष्ट दैत्यों ने स्वर्ग से पाताल में पहुँचा दिया। परंतु वे रत्न पुण्यात्मा पुरुषों के ही उपभोग के योग्य थे, अतः वे दैत्यों के अधीन न रहकर समुद्र में कूद पड़े।

यह देखकर राजा बलि अत्यंत आश्चर्यचकित हुए और अपने गुरु शुक्राचार्य से बोले— “भगवन्! हमने देवताओं को जीतकर अनेक रत्न प्राप्त किए थे but वे सब समुद्र में जा गिरे। यह अत्यंत अद्भुत बात है!”

राजा बलि की बात सुनकर शुक्राचार्य बोले—“राजन्! जब तक तुम सौ अश्वमेध यज्ञों की दीक्षा लेकर उन्हें पूर्ण नहीं कर लेते, तब तक देवताओं के राज्य पर तुम्हारा अधिकार स्थिर नहीं हो सकता। 

गुरु के इन वचनों को सुनकर राजा बलि मौन हो गए और अपने दानव दल के साथ उचित कार्यों में लग गए।

इन्द्र की पश्चातापपूर्ण स्थिति और भगवान विष्णु से प्रार्थना

इन्द्र अत्यंत शोचनीय दशा को प्राप्त हो गए थे। वे ब्रह्माजी के पास गए और स्वर्ग के राज्य पर आए भय एवं आपदाओं का सम्पूर्ण वृत्तांत उन्हें सुनाया।

ब्रह्माजीने कहाहे इन्द्र! सब देवताओं को एकत्र करो। हम सब मिलकर सर्वेश्वर Bhagwan Vishnu की आराधना करेंगे।

तब ब्रह्माजी को आगे रखकर इन्द्र सहित समस्त लोकपाल क्षीरसागर के तट पर पहुँचे। वहाँ सबने परस्पर विचार कर Bhagwan Vishnu की स्तुति आरम्भ की।

ब्रह्माजी बोलेहे देवदेव! हे जगन्नाथ! देवता और दैत्यदोनों ही आपके चरणों में मस्तक झुकाते हैं। आपकी कीर्ति परम पवित्र, आप अविनाशी और अनन्त हैं। हे परमात्मन्! आपको नमस्कार है। हे रमापते! आप स्वयं यज्ञ हैं, यज्ञरूप हैं और यज्ञ के अंग हैं। अतः आज कृपा करके देवताओं को वरदान दीजिए। भगवन्! गुरु का अपमान करने के कारण इन्द्र ऋषियों सहित स्वर्ग के राज्य से पतित हो चुके हैं; अतः इनका उद्धार कीजिए।

यह सुनकर श्रीभगवान बोलेहे देवगण! गुरु की अवहेलना करने से समस्त अभ्युदय नष्ट हो जाता है। जो अधर्म में प्रवृत्त रहते हैं, विषयसुखों में लिप्त हैं, और अपने मातापिता की निंदा करते हैंवे निस्संदेह अत्यंत भाग्यहीन होते हैं।

ब्रह्मन्! इस इन्द्र ने जो अन्याय किया है, उसका फल उसे तत्काल मिल गया। केवल इन्द्र के ही कर्मों के कारण समस्त देवताओं पर यह संकट आया है। जब किसी व्यक्ति पर विपरीत काल आता है, तब उसे दूसरों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। बुद्धिमान पुरुष अपने मनोरथों की सिद्धि हेतु अन्य प्राणियों से मित्रता करते हैं।

Lord Vishnu की आज्ञा से इन्द्र का सुतल लोक प्रस्थान

अतः हे इन्द्र! मेरी बात मानोइस समय अपने कार्य की सिद्धि के लिए तुम्हें दैत्यों से मेलजोल करना चाहिए।

Lord Maha Vishnu की आज्ञा प्राप्त कर परम बुद्धिमान इन्द्र देवताओं सहित अमरावती छोड़ सुतल लोक की ओर गए।

इन्द्र के आगमन का समाचार सुनते ही राजा बलि  क्रोध से भर उठे और अपनी सेना संग इन्द्र पर आक्रमण करने का विचार किया।

तभी देवर्षि नारद वहाँ पहुँचे और उन्होंने राजा बलि तथा दैत्यों को ऊँचनीच का विचार कर समझाया। उनके उपदेश से राजा बलि ने इन्द्र के प्रति अपना रोष त्याग दिया।

इतने में इन्द्र भी अपनी सेना सहित वहाँ पहुँच गए। राजा बलि ने देखालोकपालों से घिरे हुए इन्द्र अब श्रीहीन हो चुके हैं। उनमें प्रभुता का गर्व नहीं रहा; उनका तेज लुप्त हो गया है, और वे अब ईर्ष्या तथा अहंकार से रहित हो गए हैं।

इन्द्र और राजा बलि का संवाद तथा Samudra Manthan का आरम्भ

इन्द्र को इस अवस्था में देखकर राजा बलि के मन में गहरी करुणा उत्पन्न हुई। वे हँसते हुए बोले —“देवराज इन्द्र! आप इस सुतल लोक में कैसे पधारे? कृपया आने का कारण बताइए।”

बलि के वचनों को सुनकर इन्द्र मुस्कराते हुए बोले —“भैया! हम सब देवता क्रोध के वशीभूत होकर दुःख में हैं, और यही दशा आप सबकी भी है। जैसे हम हैं, वैसे ही आप लोग भी हैं। अतः यह आपसी कलह व्यर्थ है। भाग्यवश आपने क्षणभर में मेरा सम्पूर्ण राज्य ले लिया और स्वर्ग से अनेक रत्न यहाँ ले आए; परंतु वे रत्न जहाँ के थे वहीं लौट गए। अतः विद्वान् पुरुषों को चाहिए कि वे आपस में मिलकर कर्तव्य पर विचार करें। विचार से ज्ञान उत्पन्न होता है, और ज्ञान से संकट से मुक्ति मिलती है। इसी उद्देश्य से मैं देवताओं सहित आपके पास शरण लेने आया हूँ।”

इन्द्र की बातें समाप्त होने पर देवर्षि नारद ने राजा बलि को समझाते हुए कहा —“हे दैत्यराज! शरण में आए प्राणियों की रक्षा करना महापुरुषों का धर्म है। जो ब्राह्मण, रोगी, वृद्ध और शरणागत की रक्षा नहीं करते, वे निश्चय ही ब्रह्महत्या के समान पाप करते हैं। इन्द्र इस समय ‘शरणागत’ के रूप में तुम्हारे पास आए हैं, अतः उनका संरक्षण और पालन करना तुम्हारा परम कर्तव्य है — इसमें तनिक भी संदेह नहीं।”

समुद्र मंथन के लिए उपाय पर चर्चा

देवर्षि नारद के वचनों को सुनकर, कर्तव्य और अकर्तव्य के ज्ञाता राजा बलि ने भी अपनी बुद्धि से विचार किया। तत्पश्चात उन्होंने इन्द्र सहित समस्त लोकपालों और देवताओं का अत्यंत आदर और सम्मान के साथ स्वागत किया। इन्द्र के मन में विश्वास उत्पन्न करने के लिए बलि ने अनेक सत्य प्रतिज्ञाएँ कीं, और इन्द्र ने भी प्रत्युत्तर में निष्ठापूर्वक शपथ ली।

देवराज इन्द्र सदैव अपने स्वार्थ की सिद्धि में तत्पर रहते हैं और अर्थशास्त्र में उनकी विशेष प्रवृत्ति रही है। उन्होंने शपथ लेकर राजा बलि के साथ सुतल लोक में निवास किया। वहाँ रहते हुए कई वर्ष बीत गए।

एक दिन, नीति-निपुण देवराज इन्द्र राजा बलि की सभा में बैठे हुए बोले —“वीरवर! हमारे हाथी, घोड़े और अन्य अनेक रत्न जो तुम्हें प्राप्त होने योग्य थे, वे सब समुद्र में गिर पड़े हैं। अतः हमें शीघ्र ही उन रत्नों को समुद्र से निकालने का उपाय करना चाहिए। तुम्हारे कार्य की सिद्धि के लिए समुद्र का मंथन करना उचित रहेगा।”

इन्द्र की बात सुनकर बलि ने पूछा —“यह समुद्र मंथन (Samudra Manthan)किस उपाय से संभव होगा?”

आकाशवाणी द्वारा देवताओं और दैत्यों को आदेश

तभी आकाशवाणी हुई —“हे देवताओं और दैत्यों! तुम क्षीरसागर का मंथन करो। इस कार्य से तुम्हारा बल और वैभव दोनों बढ़ेंगे। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मंदराचल को मथनी बनाओ और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर देवता और दैत्य मिलकर समुद्र मंथन (Samudra Manthan)प्रारंभ करो।”

आकाशवाणी सुनते ही सहस्रों देवता और दैत्य समुद्र मंथन (Samudra Manthan)के लिए उद्यत हुए और सुवर्ण के समान कान्तिमान मंदराचल पर्वत के समीप पहुँचे।

वह पर्वत सीधा, गोलाकार, विशाल और अत्यंत तेजोमय था। अनेक रत्नों से उसकी शोभा बढ़ रही थी। चन्दन, पारिजात, नागकेशर, जायफल और चम्पा जैसे विविध वृक्षों से वह हराभरा दिखाई देता था।

उस पर्वत के समीप पहुँचकर देवताओं ने हाथ जोड़कर कहा —“हे दूसरों का उपकार करने वाले महाशैल मंदराचल! हम देवता आपसे एक निवेदन करने आए हैं, कृपया सुनें।”

यह सुनकर मंदराचल देहधारी पुरुष के रूप में प्रकट हुए और बोले —“हे देवगण! आप सब मेरे पास किस कार्य से आए हैं, बताइए।”

इन्द्र ने मधुर वाणी में कहा —“मंदराचल! हम समुद्र का मंथन कर उससे अमृत निकालना चाहते हैं। कृपया इस कार्य में हमारी सहायता करें और मथनी बनें।”

मंदराचल बोले —“बहुत अच्छा, मैं आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ। परंतु, हे पुण्यात्मा देवराज! आपने अपने वज्र से मेरे दोनों पंख काट डाले थे। बताइए, अब मैं आपके कार्य की सिद्धि के लिए वहाँ तक कैसे जा सकता हूँ?”

तब देवता और दैत्य दोनों ने उस अनुपम पर्वत को क्षीरसागर तक ले जाने के उद्देश्य से उखाड़ लिया। किंतु वे उसे धारण करने में समर्थ न हो सके।

वह विशाल पर्वत उन्हीं पर गिर पड़ा। कोई कुचले गए, कोई मूर्छित हो गए, कोई एक-दूसरे को कोसने लगे, और कुछ विलाप करने लगे। इस प्रकार उनका सारा उत्साह और प्रयत्न व्यर्थ हो गया।

Samudra Manthan से प्रकट हुआ हलाहल विष

Lord Shiv holding the deadly Halahal poison during Samudra Manthan, as Goddess Parvati stands beside him, symbolizing protection of the universe.

देवता और दानव जब चेतना में आए, तो वे सभी जगदीश्वर भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे
हे शरणागतवत्सल महाविष्णो! हमारी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए! आपने ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त कर रखा है।

तभी देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिए गरुड़ की पीठ पर आरूढ़ भगवान Vishnu Ji वहाँ सहसा प्रकट हो गए। वे सबको अभय देने वाले हैं। भगवान ने देवताओं और दैत्यों की ओर दृष्टिपात किया और खेलखेल में ही उस विशाल मंदराचल पर्वत को उठाकर गरुड़ की पीठ पर रख लिया। तत्पश्चात वे उन्हें क्षीरसागर के उत्तर तट पर ले गए और पर्वतश्रेष्ठ मंदराचल को समुद्र में स्थापित कर वहाँ से प्रस्थान किया।

इसके बाद देवता दैत्यों को साथ लेकर वासुकि नाग के पास पहुँचे और उनसे भी सहयोग के लिए प्रार्थना की। इस प्रकार मंदराचल को मथनी और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर देवता और दैत्य क्षीरसागर का मंथन करने लगे।

कुछ ही समय में वह पर्वत समुद्र में डूबकर रसातल में चला गया। तब लक्ष्मीपति भगवान विष्णु ने कूर्म (कच्छप) रूप धारण किया और तुरंत ही मंदराचल को अपनी पीठ पर उठा लिया। यह एक अद्भुत और दिव्य दृश्य था।

फिर जब देवता और दैत्य मथानी को घुमाने लगे, तो पर्वत स्थिर आधार होने के कारण डोलने लगा। यह देखकर परमात्मा भगवान विष्णु स्वयं मंदराचल के अधार बन गए। उन्होंने अपनी चारों भुजाओं से उस पर्वत को दृढ़ता से संभाला, जिससे वह स्थिर होकर सुगमता से घुमाया जा सके।

अब अत्यंत बलवान देवता और दैत्य एकजुट होकर पूर्ण बल से क्षीरसागर का मंथन करने लगे। कूर्म रूपधारी भगवान विष्णु की पीठ स्वभावतः कठोर थी और उस पर घूमने वाला पर्वत मंदराचल भी वज्र के समान दृढ़ था। दोनों के घर्षण से समुद्र में भयंकर अग्निबड़वानलप्रकट हो गई।

हलाहल विष का उत्पन्न और भगवान शिव की अनंत कृपा

इसी घर्षण से एक और भयानक पदार्थ उत्पन्न हुआहालाहल विष
इस विष को सर्वप्रथम देवर्षि नारद ने देखा। उन्होंने तुरंत देवताओं को पुकारकर कहाहे अदितिपुत्रो! अब तुम समुद्र का मंथन रोक दो। इस समय तुम्हें सम्पूर्ण उपद्रवों का नाश करने वाले भगवान शिव की प्रार्थना करनी चाहिए। वे परात्पर, परमानन्दस्वरूप और योगियों के ध्यान के अधिष्ठाता हैं।

परंतु देवता अपने स्वार्थसिद्धि में तन्मय होकर नारदजी के वचन नहीं सुन सके। वे केवल अमृत की अभिलाषा में समुद्र मंथन (Samudra Manthan)करते रहे।

थोड़ी ही देर में जो हलाहल विष प्रकट हुआ, वह तीनों लोकों को भस्म कर देने की शक्ति रखता था। वह भयंकर विष देवताओं के समीप पहुँच गया और सम्पूर्ण दिशाओं में फैल गया। सृष्टि के सभी प्राणी भयभीत हो उठे।

देवता और दैत्य, दोनों ही वासुकि नाग को मंदराचल सहित वहीं छोड़कर भाग खड़े हुए। तब उस विष से त्रैलोक्य की रक्षा के लिए स्वयं भगवान शिव (Lord Shiv) प्रकट हुए। उन्होंने उस कालकूट विष को अपने कंठ में धारण कर लिया और उसे निर्दोष बना दिया।

इस प्रकार भगवान शंकर की अनंत कृपा से देवता, असुर, मनुष्य तथा समस्त त्रिलोक हलाहल विष के प्रकोप से सुरक्षित हो गए।

समुद्र मंथन से लक्ष्मी जी का प्रकट होना

Goddess Lakshmi rising from the ocean on a lotus and Lord Dhanvantari holding the Amrit Kalash during Samudra Manthan, surrounded by rejoicing Devas.

तदनन्तर भगवान् विष्णु के समीप मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर देवताओं ने पुनः समुद्र-मन्थन आरम्भ किया। तब समुद्र से देवकार्यों की सिद्धि के लिए अमृतमयी कलाओं से परिपूर्ण चन्द्रदेव प्रकट हुए।

समस्त देवता, असुर और दानवों ने भगवान् चन्द्रदेव को प्रणाम किया और गर्गाचार्यजी से अपने-अपने चन्द्रबल के विषय में यथार्थ जिज्ञासा की।
तब गर्गाचार्यजी ने कहा —“इस समय तुम सबका बल अत्यन्त उत्तम है। तुम्हारे सभी ग्रह शुभ स्थानों — लग्न, चतुर्थ, सप्तम और दशम भावों में हैं। चन्द्रमा से गुरु का योग हुआ है और बुध, सूर्य, शुक्र, शनि तथा मंगल सभी चन्द्रमा से संयुक्त हैं। अतः इस समय तुम्हारा चन्द्रबल अत्यन्त श्रेष्ठ है। यह ‘गोमन्त’ नामक विजयदायक मुहूर्त है।”

महात्मा गर्गजी के इस आश्वासन से उत्साहित होकर देवता गर्जना करते हुए अत्यन्त वेग से समुद्र-मन्थन करने लगे। मन्थन के कारण समुद्र के चारों ओर प्रचण्ड गर्जना गूँज उठी।

इस बार के मन्थन से देवकार्यों की सिद्धि के लिए साक्षात् सुरभि (कामधेनु) प्रकट हुईं, जिन्हें सैकड़ों गौएँ — काली, श्वेत, पीली, हरी और लाल — घेरे हुए थीं। ऋषिगण अत्यन्त प्रसन्न होकर देवताओं और दैत्यों से बोले — “आप सब विभिन्न गोत्रों के ब्राह्मणों को इन कामधेनु और गौओं सहित दान अवश्य दें।”

ऋषियों की प्रार्थना पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के उद्देश्य से वे सभी गौएँ दान कर दीं। उन परम मंगलमय महात्मा ऋषियों ने उन्हें यज्ञकर्म में उपयोग के लिए स्वीकार किया।

Samudra Manthan में कल्पवृक्ष, कौस्तुभ मणि और दिव्य रत्नों का आगमन

इसके बाद सबने पुनः उत्साहपूर्वक समुद्र-मन्थन आरम्भ किया।
तब समुद्र से कल्पवृक्ष, पारिजात, चूत (आम वृक्ष) और सन्तानक — ये चार दिव्य वृक्ष प्रकट हुए।
उन्हें एकत्र रखकर देवताओं ने पुनः मन्थन आरम्भ किया।

इस बार समुद्र से रत्नों में सर्वोत्तम कौस्तुभ मणि प्रकट हुई, जो सूर्यमण्डल के समान तेजस्वी थी।
देवताओं ने चिन्तामणि के आगे कौस्तुभ का दर्शन किया और उसे भगवान् विष्णु (Vishnu God) की सेवा में अर्पित कर दिया।

तदनन्तर देवता और दैत्य फिर से समुद्र को मथने लगे। वे सब बल से परिपूर्ण होकर गर्जना कर रहे थे।
अब समुद्र से उच्चैःश्रवा नामक दिव्य अश्व प्रकट हुआ — जो समस्त अश्वों में श्रेष्ठ रत्न था।
इसके बाद गजजाति का रत्न एरावत प्रकट हुआ, जो श्वेतवर्ण का और चार दाँतों वाला था। उसके साथ श्वेत वर्ण के चौसठ हाथी भी थे।

इन सबको एक ओर रखकर देवता और दैत्य पुनः समुद्र-मन्थन में लग गये।
तब समुद्र से मदिरा, भाँग, काकड़ासिंगी, लहसुन, गाजर, धतूरा, पुष्कर आदि अनेक वस्तुएँ प्रकट हुईं। इन्हें भी समुद्र तट पर एक स्थान पर रख दिया गया।

Devi Mahalakshmi का अवतरण और देवताओं पर उनकी कृपा

इसके पश्चात् देवता और दानव पहले की भाँति पुनः मन्थन करने लगे।
अब समुद्र से सम्पूर्ण भुवनों की अधीश्वरी महालक्ष्मी देवी (Mahalaxmi Ji) प्रकट हुईं — जिनका रूप दिव्य और अलौकिक था।
ब्रह्मवेत्ता उन्हें आन्वीक्षिकी (वेदान्तविद्या) कहते हैं, अन्य लोग उन्हें मूलविद्या नाम से पुकारते हैं।
कुछ महात्मा उन्हें वाणी और ब्रह्मविद्या मानते हैं, तो कुछ उन्हें ऋद्धि, सिद्धि, आज्ञा और आशा कहते हैं।
योगीजन उन्हें वैष्णवी और माया के उपासक उन्हें माया के रूप में जानते हैं।
ज्ञानशक्ति से सम्पन्न महापुरुष उन्हें भगवान की योगमाया कहते हैं।

देवताओं ने देखा — देवी महालक्ष्मी का रूप अत्यन्त मनोहर है। उनके मुख पर स्वाभाविक प्रसन्नता शोभा पा रही थी। हार, नूपुर और आभूषणों से उनके अंग अलंकृत थे।
उनके मस्तक पर छत्र तना था और दोनों ओर से चँवर डुल रहे थे।
जैसे माता अपने पुत्र को स्नेहभरी दृष्टि से देखती है, वैसे ही सती महालक्ष्मी ने देवता, दानव, सिद्ध, चारण और नागों पर कृपा-दृष्टि डाली।

उनकी दृष्टि पड़ते ही सभी देवता श्रीसम्पन्न हो गये — उनके मुख पर तेज, शरीर पर राजचिह्न और मन में उल्लास प्रकट हुआ।

तत्पश्चात् Lakshmi Devi ने भगवान् मुकुन्द (विष्णु) की ओर दृष्टि की।
उनका श्याम वर्ण तमाल वृक्ष के समान था, नासिका और कपोल अत्यन्त सुंदर थे, और उनके वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न शोभित था।
भगवान् के एक हाथ में कौमोदकी गदा शोभा पा रही थी।

भगवान् नारायण के उस दिव्य सौन्दर्य को देखकर Lakshmi Maa विस्मित हो उठीं।
उन्होंने अपने ही हाथों से बनाई हुई वनमाला — जिस पर भ्रमर मँडरा रहे थे — लेकर हाथी से उतर आईं और वह माला Bhagwan Vishnu के कण्ठ में पहना दी।
फिर स्वयं उनके वामभाग में जाकर खड़ी हो गईं।

उन दिव्य दम्पति — भगवान् विष्णु और देवी लक्ष्मी (Lakshmi Mata) — के दर्शन से सम्पूर्ण देवता, दैत्य, सिद्ध, अप्सराएँ, किन्नर और चारणगण परम आनन्द से भर उठे

मोहिनी रूप में भगवान विष्णु और Dhanteras की कथा

तदनन्तर, लक्ष्मीजी के साथ परमआनंदमय Bhagwan Vishnu को प्रणाम करके, देवता और दैत्य पुनः अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन (Samudra Manthan)करने लगे। इसी समय समुद्र से महायशस्वी धन्वंतरि देव प्रकट हुए। वे तरुण अवस्था में, तेजस्वी और मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले द्वितीय शंकर के समान दिव्य स्वरूप में दिखाई दिए। 

उनके दोनों हाथों में अमृत से भरा हुआ सुधा कलश था, जिसने सभी देवताओं और दैत्यगणों का मन मोह लिया। इस प्रकट होने की घटना को धनतेरस (Dhanteras) के रूप में याद किया जाता है, क्योंकि धन्वंतरि देव के आगमन और अमृत के वितरण के इस दिव्य अवसर से ही लोगों में स्वास्थ्य, समृद्धि और कल्याण की परंपरा जुड़ी। Dhanteras के दिन से लोग अपने घरों में दीप प्रज्वलित करते हैं, आयु और समृद्धि की कामना करते हैं, और धनतेरस का पर्व मनाते हैं।

Dhanteras और देवताओं का अमृत संग्राम

Dhanteras हिन्दू पंचांग का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो कार्तिक मास (Kartik Month) की कृष्ण पक्ष की तेरवीं तिथि को मनाया जाता है। इसका नामधन + तेरससे पड़ा है, यानी तेरहवीं तिथि पर धन और समृद्धि की प्राप्ति का दिन। इस दिन लोग धन, सोना, चांदी और वस्त्रों की पूजा करते हैं और घर में समृद्धि, ऐश्वर्य और सुखशांति के लिए विशेष उपाय करते हैं।

देवता अभी उनके मनोहर स्वरूप का दर्शन ही कर रहे थे कि इतने में ही बलवान् दैत्य वृषपर्वा ने बलपूर्वक उनके हाथ से वह अमृतकलश छीन लिया।
दैत्यगण उस सुधापूर्ण कलश को लेकर अमृतपान की लालसा में पाताललोक की ओर चले गए। जब देवता भी वहाँ पहुँचे, तब दैत्यराज बलि ने उनसे कहा

देवताओं! तुम सब लोग पहले ही रत्नों से युक्त वस्तुएँ प्राप्त करके कृतार्थ हो चुके हो। हमने केवल इस अमृत को पाकर ही संतोष किया है। अतः अब तुम लोग प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र अपने स्वर्गलोक को लौट जाओ।

राजा बलि के इन कटु वचनों से दुखी होकर सभी देवता भगवान् नारायण के समीप पहुँचे।
भगवान् ने देखा कि देवताओं का मनोरथ असफल हो गया है। तब उन्होंने मधुर वाणी में आश्वासन देते हुए कहा

देवताओं! भय मत करो। मैं अपनी योगमाया के प्रभाव से दानवों को मोहित कर तुम्हारे लिए अमृत प्राप्त करूँगा।

इतना कहकर अनाथों को शरण देने वाले Bhagwan Vishnu ने देवताओं को वहीं ठहरने का आदेश दिया और तत्क्षण मोहिनी रूप धारण कर लिया।

मोहिनी देवी के आगमन से अमृत विवाद का समाधान

उधर दैत्य आपस में अमृत के लिए विवाद और कलह में उलझे हुए थे। उसी समय मोहिनी देवी वहाँ प्रकट हुईं।
वे ऐसी अनुपम सुंदरी थीं कि सम्पूर्ण प्राणियों के मन को मोह लेने वाली थीं। उन्हें देखकर सभी दैत्य आश्चर्यचकित रह गए और उनकी ओर तृप्त होने वाली दृष्टि से निहारने लगे।

तब राजा बलि ने विनम्रता से कहामहाभागे! कृपा करके मेरी एक बात मानो। हम सबके बीच जो यह विवाद उत्पन्न हुआ है, उसकी शीघ्र शांति के लिए तुम स्वयं इस अमृत का उचित विभाजन कर दो।

तब मोहिनी देवी मुस्कराईं और बोलींविद्वान पुरुषों को स्त्रियों पर सहज विश्वास नहीं करना चाहिए। छल, साहस, माया, मूर्खता, अत्यधिक लोभ, अपवित्रता और कठोरताये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। उनमें स्नेह और धूर्तता दोनों होती हैं। जैसे पक्षियों में कौआ और शिकारी जीवों में सियार चालाक होता है, वैसे ही मनुष्यों में स्त्री स्वभावतः चतुर होती है।

अतः बुद्धिमान पुरुषों को यह भलीभांति जानना चाहिए कि बिना विचार किए किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए। यहाँ यह भी अज्ञात है कि आप कौन हैं और मैं कौन हूँ। इसलिए आप सबको कर्तव्य और अकर्तव्य का विचार कर ही किसी पराई बुद्धि से अपने हित का साधन करना चाहिए।

यह सुनकर राजा बलि हँस पड़े और बोलेदेवि! तुम हमारी बात स्वीकार करो। आज इस अमृत का उचित विभाजन कर दो। जिसे जितना दोगी, उतना ही हम ग्रहण करेंगे। यह बात हम तुमसे सत्यसत्य कह रहे हैं।

राजा बलि और मोहिनी अवतार की लीला

राजा बलि के ऐसा कहने पर सर्वमंगला महादेवी मोहिनी, दैत्यों को लोक के व्यवहार का उपदेश देती हुई मधुर वाणी में बोलीं
हे श्रेष्ठ असुरगण! आप लोग किसी अनिर्वचनीय देवशक्ति की सहायता से अपने कार्य में सफल हुए हैं। अतः अब उचित यही होगा कि अमृत का अधिवासन करें और इसे घर के भीतर सुरक्षित रूप से रख दें। आज व्रत रखकर कल प्रातःकाल अमृत का पारण करें।
बुद्धिमान पुरुष को यह उचित है कि वह अपने न्यायपूर्वक अर्जित धन का दशमांश भाग ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किसी सत्कर्म में लगाये।

योगमाया से मोहित वे असुरगण अत्यधिक समझदार नहीं थे, इसलिए मोहिनी देवी के वचनों को सत्य मानकर उन्होंने वैसा ही किया।
रात्रि में उन्होंने प्रसन्नता से जागरण किया और उषा काल आते ही स्नान कर समस्त आवश्यक कर्म पूर्ण किए। तत्पश्चात बलि, वृषपर्वा, नमुचि, शंख, बुद्बुद, सुदष्ट, संहाद, कालनेमि, विभीषण, वातापि, इल्वल, कुम्भ, निकुम्भ, प्रघस, सुन्द, उपसुन्द, निशुम्भ, शुम्भ तथा अन्य अनेक असुर क्रमशः पंक्तिबद्ध होकर अमृतपान के लिए बैठ गए।

उस समय मोहिनी देवी अपने हाथ में सुधाकलश धारण किए, अपनी दिव्य कान्ति से अत्यंत शोभायमान थीं।
इसी बीच देवगण भी अपनेअपने पात्र लेकर वहाँ उपस्थित हुए। उन्हें देखकर मोहिनी देवी ने असुरों से कहा
इन्हें आप लोग अपने अतिथि समझें। ये धर्म को ही सर्वोपरि मानकर उसी का साधन करनेवाले हैं। अतः इनके प्रति दानशील और सम्मानपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
जो व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार दूसरों का उपकार करता है, वही वास्तव में धन्य है और वही संसार का रक्षक एवं परम पवित्र कहा जाता है। जो केवल अपने ही हित में लिप्त रहता है, वह दुःख का भागी बनता है।

समुद्र मंथन में अमृत वितरण और राहु की कथा

मोहिनी देवी के ऐसा कहने पर असुरों ने इन्द्रादि देवताओं को भी अमृतपान के लिए आमंत्रित किया। सभी देवता भी वहाँ बैठ गए।
तब सम्पूर्ण धर्मों की ज्ञाता और देवताओं के हित की साधिका मोहिनी देवी ने मुस्कराते हुए कहा
वैदिक श्रुति कहती है कि अतिथि का सत्कार सबसे पहले होना चाहिए। अब आप ही बताइएहे महाभाग राजा बलि! पहले मैं किन्हें अमृत परोसूँ?”

राजा बलि ने उत्तर दिया— “देवि! तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा ही करो।

राजा बलि के इस सम्मानपूर्ण उत्तर को सुनकर मोहिनी देवी ने अमृतकलश अपने हाथ में लिया और पहले देवताओं को ही शीघ्रता से सुधा परोसने लगीं।
उनका हासरस जैसे स्वयं अमृत समान लग रहा था। मोहिनी देवी द्वारा दिया गया वह सुधारस देवगणों, लोकपालों, गंधर्वों, यक्षों और अप्सराओं ने तृप्त होकर ग्रहण किया।

उसी समय राहु नामक एक दैत्य देवताओं की पंक्ति में छिपकर बैठ गया और अमृतपान करने लगा। जब उसने अमृत पीने का प्रयास किया, तब सूर्य और चन्द्रमा ने यह बात भगवान विष्णु को बताई।
तुरंत ही भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से उस विकराल दैत्य राहु का मस्तक काट डाला। उसका सिर आकाश में उड़ गया और शरीर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

चन्द्रमा की रक्षा और भगवान शिव का गौरव

उस समय असंख्य (सौ करोड़) मुख्य-मुख्य दैत्य गर्जना करते हुए महान् बल और पराक्रम वाले देवताओं को युद्ध के लिए ललकारते हुए आगे बढ़े।
महाकाय राहु ने चन्द्रमा को अपना ग्रास बनाकर इन्द्र के पीछे दौड़ लगाई। वह समस्त देवताओं को निगल जाने जैसा प्रतीत हो रहा था।
यद्यपि राहु एक ही था, परंतु वह सर्वत्र उपस्थित प्रतीत हो रहा था। यह देखकर देवता भयभीत हो गए और चन्द्रमा को आगे करके अत्यंत शीघ्रता से भागे। पृथ्वी छोड़कर वे स्वर्गलोक की ओर चले गए।

देवगण जैसे ही स्वर्ग पहुँचे, वैसे ही राहु भी प्रचंड वेग से उनके सम्मुख आ खड़ा हुआ। वह चन्द्रमा को निगल जाना चाहता था।
यह देखकर चन्द्रमा भय से व्याकुल हो उठे और भगवान शंकर की शरण में जाने का विचार किया।
वे मन ही मन भगवान शिव (Lord Shiv) का स्मरण करते हुए प्रार्थना करने लगे—

“हे देवेश! हे वृषभध्वज! आप हमारे रक्षक बनें।
संकट से मुझे उबारें, हे शरणागत-वत्सल पार्वतीपति!
आपकी शरण में आया हूँ, कृपया मेरी रक्षा करें।”

Lord Shiv, Chandra और Rahu: राक्षसमुण्डमाला की उत्पत्ति और कथा

चन्द्रमा की इस विनती को सुनकर सर्वकल्याणकारी भगवान सदाशिव वहीं प्रकट हो गए और बोले—

“हे चन्द्र! भय मत करो।”

इतना कहकर उन्होंने चन्द्रमा को अपने जटाजूट के ऊपर स्थान दे दिया।
तब से चन्द्रमा भगवान शिव (Lord Shiv) के मस्तक पर श्वेत कमल के समान सुशोभित हैं।

चन्द्रमा की रक्षा के पश्चात् राहु भी वहाँ आया और भगवान शिव की स्तुति करने लगा—

“शान्तस्वरूप भगवान शिव को नमस्कार!
आप ही ब्रह्म हैं, आप ही परमात्मा हैं।
लिंगरूपधारी महादेव! जगत्पते! आपको प्रणाम!
आप सम्पूर्ण भूतों के निवासस्थान, दिव्य प्रकाशस्वरूप और सबके पालनकर्ता हैं।
हे महादेव! आप समस्त जगत को आनन्द देने वाले हैं।
मेरा भक्ष्य चन्द्रमा इस समय आपके समीप है, कृपया उसे मुझे सौंप दें।”

राहु की इस प्रार्थना से भगवान सोमनाथ (शिव) प्रसन्न हुए और बोले—

“मैं सम्पूर्ण प्राणियों का आश्रय हूँ। देवता और असुर दोनों ही मुझे प्रिय हैं।”

यह कहकर भगवान शिव ने राहु को आशीर्वाद दिया। राहु ने उन्हें प्रणाम किया और उनके मस्तक में स्थित हो गया।
चन्द्रमा भयवश अमृत का स्राव करने लगे, और उस अमृत के स्पर्श से राहु के अनेक मस्तक उत्पन्न हो गए।
भगवान शंकर ने उन सभी मस्तकों की माला बनाकर अपने गले में धारण कर ली — वही राक्षसमुण्डमाला के रूप में प्रसिद्ध हुई।

दीपदान, रुद्राक्ष और विभूति का माहात्म्य

जो व्यक्ति भगवान शिव के ऊपर दूसरों द्वारा अर्पित पूजा सामग्री को देखकर भी प्रसन्न होता है, वह श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करता है।
जो कार्तिक मास (Kartik Month) की रात्रि में श्रद्धापूर्वक शिवलिंग के समीप दीपमाला (Deepdan) समर्पित करता है, उसके अर्पित दीप जब तक जलते हैं, वह उतने हजार युगों तक स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित रहता है।
जो भक्त भगवान शिव के मंदिर में कुसुम्भ तेल के दीप अर्पित करता है, वह ऊपर और नीचे की दस-दस पीढ़ियों सहित शिवलोक में निवास करता है। दीपदान से मनुष्य ज्ञान की प्राप्ति करता है।

जो कपूर, अगर और धूप से भगवान सदाशिव की पूजा करता है तथा प्रतिदिन कपूर की आरती उतारता है, वह सायुज्य मुक्ति को प्राप्त करता है।
जो व्यक्ति दान, तप, तीर्थ और पर्वकाल में रुद्राक्ष धारण कर शिव पूजा करता है, उसका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता।

रुद्राक्ष और विभूति का रहस्य

हे द्विजश्रेष्ठो! भगवान शिव ने Rudraksha के जो भेद बताए हैं, उन्हें सुनो —
रुद्राक्ष एक मुख से लेकर सोलह मुख तक होते हैं।
इनमें एकमुखी और पंचमुखी रुद्राक्ष — ये दोनों मनुष्यों द्वारा धारण करने योग्य और श्रेष्ठ माने गए हैं।
जो प्रतिदिन एकमुख रुद्राक्ष धारण करता है, वह जीवन्मुक्त कहा जाता है; और जो पंचमुख रुद्राक्ष धारण करता है, वह रुद्रलोक में जाकर आनन्द का भागी बनता है।

जप, तप, योग, स्नान और देवपूजा — जो भी शुभ कर्म किए जाएँ, रुद्राक्ष धारण करने से वे अनन्त फल देने वाले बन जाते हैं।
जो भक्त मंत्र-शुद्ध विभूति से अपने ललाट पर त्रिपुण्ड (तीन रेखाएँ) धारण करते हैं, वे रुद्रलोक में रुद्र समान होते हैं।

विभूति सभी पापों का नाश करने वाली बताई गई है।
कपिला गाय के गोबर को भूमि पर गिरने से पहले ही हाथ में लेकर सुखाकर विभूति के लिए संग्रह करना चाहिए।
ललाट पर पहले अँगूठे से एक रेखा, फिर अनामिका और तर्जनी से दो रेखाएँ खींचनी चाहिए।
जिसके ललाट पर इस प्रकार तीन स्पष्ट रेखाएँ होती हैं, उसे साक्षात् भगवान शिव के समान जानना चाहिए —
क्योंकि उसका दर्शन मात्र से ही समस्त पापों का नाश हो जाता है।

Warm wishes to everyone on the auspicious occasion of Kartik Month, Dhanteras, and Diwali!

हरे कृष्णा 
राधे राधे

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