Premanand Ji Maharaj: – पूज्य प्रेमानंद महाराज जी के जीवन की अमृत कथाएं

Premanand Ji

क्या आपने कभी किसी ऐसे संत के बारे में सुना है, जो मर जाना तो स्वीकार कर लें, लेकिन अपने प्रभु की भूमि वृंदावन को छोड़ना नहीं? जो भूख से बेहाल होकर भी सिर्फ प्रभु के दर्शन की चिंता में खोए रहे? यह कोई कल्पना नहीं, यह सच्ची कहानी है – Shri Premanand Ji (पुज्य परमानंद जी महाराज की।)

इस ब्लॉग में हम उनके जीवन की उन सच्ची घटनाओं को साझा कर रहे हैं जो हमें यह सिखाती हैं कि सच्ची भक्ति क्या होती है, और तपस्या की वास्तविक परिभाषा क्या है।

Premanand Ji

पूज्य Premanand Ji महाराज का जीवन शुरू से ही सामान्य बच्चों जैसा नहीं था। जब अन्य बच्चे खेल-कूद और बाल्यवस्था के सुखों में मग्न रहते हैं, तब गुरुजी के मन में ईश्वर के प्रति एक अलग ही खिंचाव था।

मात्र 13 वर्ष की आयु में, जब जीवन की शुरुआत होती है, उन्होंने वह निर्णय लिया जो बड़े-बड़े संन्यासी भी सोचकर नहीं ले पाते –उन्होंने घर त्याग दिया। लेकिन ये त्याग किसी दुख, विपत्ति, या पारिवारिक संकट की वजह से नहीं था। ना ही किसी मोहभंग की पीड़ा थी। यह त्याग था – एक लक्ष्य की पहचान के बाद उसे पाने की तड़प का परिणाम।

उन्होंने बचपन से ही यह अनुभव किया कि इस जीवन का कोई ऊपरी उद्देश्य नहीं है, जब तक प्रभु से मिलन न हो। उन्होंने किसी को दोष नहीं दिया, न किसी से नाराज़ हुए, न किसी को ठहराया अपने निर्णय के लिए ज़िम्मेदार।“जब आत्मा जागती है, तो संसार की नींद टूट जाती है।” पूज्य Premanand Ji महाराज जी निकल पड़े – न कोई बिछौना, न भोजन की चिंता, न छत का सहारा। बस एक ही उद्देश्य था – प्रभु को पाना है। फिर यह यात्रा शुरू हुई – 13 वर्ष की आयु से लेकर 55-56 वर्ष की आयु तक की।

इस पूरे जीवन में उन्होंने न किसी को मित्र बनाया, न किसी को शत्रु। “जब मित्र ही नहीं, तो शत्रु कैसा?”  उनके लिए हर व्यक्ति भगवान का ही रूप था। वे सभी से प्रेम करते थे – लेकिन किसी से न आसक्ति, न मोह। किसी से न मित्रता, न दूरी – हर किसी में उन्होंने केवल प्रभु का ही दर्शन किया। कई वर्षों तक उन्होंने किसी आश्रम या संस्था का सहारा नहीं लिया। वे घाटों पर रहे, भिक्षुक की तरह जीवन बिताया, और हर सांस प्रभु की भक्ति में अर्पित कर दी। कभी भोजन मिला, कभी नहीं – कभी ठंड में बोरी ओढ़ी, कभी खुले आकाश के नीचे रात गुजारी।

लेकिन पूज्य Premanand Ji महाराज के अंदर का संकल्प कभी नहीं टूटा। “एक बार जब जीवन का उद्देश्य साफ हो जाए, तो राह कितनी भी कठिन क्यों न हो, रुकना नहीं होता।” गुरुजी का घर छोड़ना किसी त्याग की कहानी से अधिक, एक आत्मा की पुकार थी प्रभु के लिए। वो पुकार आज भी प्रेरणा बनकर गूंजती है – हर उस ह्रदय में जो जीवन को आध्यात्म की राह पर ले जाना चाहता है।

घाटों पर बीता जीवन – भिक्षा, तप और प्रभु मिलन की तड़प

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पूज्य Premanand Ji महाराज का जीवन तप और त्याग की मिसाल है, और उनका अधिकांश जीवन गंगा के घाटों पर बीता। वे वहां न किसी मठ में रहते थे, न किसी मंदिर में। उनके पास कोई साधन नहीं था, न कोई शिष्य, न ही कोई आश्रय। वे अकेले, सिर्फ एक कमंडल, एक चादर, और एक गमछा लेकर घाटों पर रहते। जीवन में कभी किसी से कुछ माँगा नहीं, जो कुछ भी मिला – जैसे कभी दो टुकड़े बर्फी, कभी मुट्ठीभर सतुआ – वही उनका भोजन होता था। न समय निश्चित होता, न मात्रा। कई बार तो दो-दो दिन कुछ नहीं मिलता, लेकिन उन्होंने कभी किसी से शिकायत नहीं की।

इन घाटों पर उनका जीवन कठोर तपस्या से भरा था। न दिन की चिंता, न रात की। जमीन ही बिछौना थी और आकाश ही छत। कंबल की जगह गेहूं की पुरानी बोरियां ओढ़ते थे, और ठंडी रातों में यही उनका आश्रय बनती थीं। एक ब्रजवासी रोज़ आंवले की चार सूखी कंडियां कटोरे में रख जाता था – वही उनकी सब्जी होती। जीवन भर वे इसी प्रकार प्रभु के नाम में लीन रहे। कई दिनों तक अन्न नहीं मिला तो उन्होंने गंगा की रेत तक खा ली, यह सोचकर कि यदि शरीर नहीं बचेगा, तो प्रभु मिलन भी कैसे होगा। लेकिन प्रभु मिलन की तड़प हर दर्द को छोटा बना देती थी।

घाटों पर वे सिर्फ रहते ही नहीं थे, वहां वे प्रभु से संवाद करते, रोते, प्रार्थना करते – “कैसे मिलूंगा प्रभु?” यह एक सवाल बार-बार उनके मन में गूंजता था। जब कोई व्यक्ति ऐसी सच्ची पीड़ा से भगवान को पुकारता है, तो भगवान तक वह आवाज़ जरूर पहुंचती है। और यही हुआ। बिना किसी प्रचार, बिना किसी शिष्य मंडली के, एक साधारण वेशधारी भिक्षुक घाटों पर बैठा रहा – और भगवान ने उसकी सुन ली।

घाटों ने उन्हें बहुत कुछ दिया – कष्ट भी, सहनशीलता भी, और अंततः वही घाट उनके जीवन की तपोभूमि बन गए। वहीं से उन्होंने प्रभु को पाया, वहीं उन्हें जीवन की दिशा मिली। और अंततः भगवान की कृपा से वही घाट उन्हें वृंदावन ले आए – जहां आज वे जनसेवा, भक्ति और प्रेम के संदेश को बांट रहे हैं।

वृंदावन वास – “मरना स्वीकार है, लेकिन वृंदावन से बाहर जाना स्वीकार नहीं”

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पूज्य Premanand Ji महाराज का जीवन एक साधारण संन्यासी का नहीं, बल्कि व्रजभूमि के प्रति अटूट समर्पण और प्रभु प्रेम में डूबे तपस्वी का था। उन्होंने जब संन्यास लिया, तो वह केवल वैराग्य नहीं था – वह था सम्पूर्ण समर्पण, सम्पूर्ण समर्पण वृंदावन के चरणों में।

पूज्य Premanand Ji महाराज का नियम था – वे कभी वृंदावन से बाहर नहीं जाएंगे। यह केवल संकल्प नहीं, बल्कि उनकी आत्मा का व्रत था। उन्होंने “क्षेत्र संन्यास” लिया था – जिसका अर्थ है कि जीवनभर वे केवल वृंदावन क्षेत्र में ही निवास करेंगे और वहीं भक्ति करेंगे। यह क्षेत्र कोई छोटा भूभाग नहीं, बल्कि वह 84 कोस का विशाल व्रजमंडल है, जिसमें गोष्ठ वृंदावन, गोपी वृंदावन, नव निवृत्त निकुंज वृंदावन, बरसाना, नंदगांव, गिरिराज जी, बंसी भट, मानसरोवर और मथुरा तक का समावेश है।

पूज्य Premanand Ji महाराज जी कभी वृंदावन से बाहर नहीं गए। अगर कभी किसी ने आग्रह किया कि “आपकी तबीयत ठीक नहीं है, चलिए किसी शहर में इलाज करवाते हैं”, तो उनका उत्तर था –”मरना स्वीकार है, लेकिन वृंदावन से बाहर जाना स्वीकार नहीं।”

वे मानते थे कि अगर जीवन की अंतिम सांस भी आए, तो वह प्रभु की भूमि पर ही आए। उन्होंने शरीर की नहीं, आत्मा की चिंता की। उनका जीवन दर्शन बिल्कुल स्पष्ट था – यह शरीर प्रभु की सेवा के लिए है, इसे दुनिया के सुख-साधनों से क्यों जोड़ूं?

जब वे किसी स्थान की यात्रा करते, तो वह केवल व्रजमंडल के भीतर की होती – जैसे बरसाना, नंदगांव, गिरिराज पर्वत, मानसरोवर या बंसी भट। उनका बाहरी संसार यही था। इसके बाहर जाना उनके जीवन का उद्देश्य ही नहीं था।

यह सुनकर कोई सोच सकता है – “क्या उन्होंने कभी कुछ मिस नहीं किया?”
लेकिन गुरुजी के लिए संसार की कोई चीज़, कोई स्थान, कोई संबंध – वृंदावन की धूल के एक कण से भी बड़ा नहीं था।

उनके लिए वृंदावन मात्र एक तीर्थ नहीं, एक जीवंत साक्षात अनुभूति थी प्रभु की – जहाँ हर वृक्ष, हर कंकर, हर बांसुरी की गूंज में श्रीकृष्ण बसते थे। वहाँ से दूर जाना उनके लिए वैसा ही था, जैसे मछली को पानी से निकालना।

आज भी जब कोई श्रद्धालु वृंदावन जाता है और पूज्य Premanand Ji महाराज जी के व्रत, उनके त्याग और उनकी निष्ठा की कहानी सुनता है, तो वह भाव-विभोर हो जाता है।

वे इस भौतिक दुनिया में रहते हुए भी, हर क्षण दिव्य संसार में जीते थे – वृंदावन की लीला भूमि में।

गंगा की रेत – जब भूख में भी प्रभु की भक्ति नहीं डगमगाई

Premanand Ji

पूज्य Premanand Ji महाराज जी महाराज का जीवन केवल तपस्या की गाथा नहीं, बल्कि अत्यंत कठिन परीक्षा की अग्निपरीक्षा भी था। यह कहानी उस समय की है जब कई दिनों तक उन्हें अन्न का एक भी दाना नहीं मिला था।
ना कोई आश्रम, ना कोई सेवक, ना कोई पकाया हुआ भोजन – सिर्फ एक भिक्षुक का जीवन और भगवान के प्रति अटूट भक्ति।

एक दिन, भूख ने जब शरीर को पूरी तरह तोड़ दिया, और कोई उपाय नहीं बचा – तो पूज्य Premanand Ji महाराज जी गंगा जी के तट पर पहुंचे। वहाँ जो मिला, वह किसी साधारण व्यक्ति के लिए कल्पना से भी परे था – उन्होंने गंगा जी की रेत खा ली। जी हाँ, रेत।

गुरुजी ने अपने हाथों से कुछ मुट्ठी रेत उठाई। उस रेत में टूटे हुए शंख पड़े थे, जिन्हें उन्होंने सावधानी से निकालकर अलग किया, और फिर चार-पाँच मुट्ठी गंगाजल पिया। लेकिन खाने को कुछ और नहीं मिला। और फिर भी – ना कोई शिकायत, ना कोई तकरार, ना कोई प्रश्न। केवल एक भावना –“मैं प्रभु को कैसे प्राप्त करूं?” उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि “भगवान मुझे इस हालत में देख रहे हैं”, बल्कि हमेशा यही सोचते रहे कि “मैं भगवान को कैसे पाऊं?”

उनका जीवन दूसरों की तरह नहीं था जो भूख में मदद की उम्मीद करते हैं। वे भगवान की परीक्षा में खरे उतरना चाहते थे। यह वही भाव था जो भगवान ने सुदामा में देखा था। सुदामा जी को भी कई दिनों तक भोजन नहीं मिला था, लेकिन परिणाम क्या हुआ?

उनकी सुदामापुरी, द्वारकापुरी जैसी बन गई। गुरुजी ने कोई क्रोध नहीं किया, कोई हार नहीं मानी। उनका व्रत अडिग था, उनका धैर्य अटूट था। वे भूख से थकते नहीं थे – वे प्रेम में डूबे हुए थे। वहीं दूसरी ओर, आज हम थोड़ी सी कठिनाई आने पर हताश हो जाते हैं, लेकिन गुरुजी जैसे संतों का जीवन हमें सिखाता है कि जब तक हमारी साधना सच्ची है, तब तक भगवान सब देख रहे होते हैं।

आज जब यह कथा सुनाई जाती है, तो कई लोगों की आंखें नम हो जाती हैं – क्योंकि यह कोई कथा नहीं, बल्कि उस तपस्वी की सच्चाई है, जिसने रेत खाकर भी ईश्वर को धन्यवाद कहा।

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