देवताओं के प्रिय और त्रिलोक में विचरण करने वाले महान ऋषि Narad Muni जी—क्या वे भी कभी मोह के जाल में फँसे थे? क्या स्वयं भगवान ने उनकी भक्ति और ज्ञान की परीक्षा ली थी? इस कहानी से मिलने वाली सीख आपको चौंका देगी! क्या उनके ज्ञान और भक्ति की परीक्षा स्वयं भगवान ने ली थी? इस कथा में छिपा है एक ऐसा रहस्य, जो हमें सिखाएगा कि माया से बचना कितना कठिन है, चाहे कोई भी कितना बड़ा ज्ञानी क्यों न हो!”
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Toggleजब शिवजी ने चेताया, पर Narad Muni जी नहीं माने – फिर क्या हुआ

एक बार Narad Muni जी भगवान शंकर के पास गए और बोले, “मैंने काम (वासनाओं) पर विजय प्राप्त कर ली है।” यह सुनकर शंकर जी ने उन्हें चुप रहने के लिए कहा और समझाया कि इस बात को श्री हरि से मत कहना। लेकिन Narad Muni जी ने सोचा कि शिव जी स्वयं काम विजयी नहीं हैं, क्योंकि उन्हें क्रोध आ गया और मुझे नहीं आया। उन्होंने इसे अपनी श्रेष्ठता समझा और भगवान विष्णु से मिलने चले गए।
इसके बाद नारद जी श्री हरि के पास गए. श्री हरि बोले – आओ नारद जी आओ. नारद जी बैठ गए और बोले प्रभु आपकी कृपा से हमने काम पर विजय प्राप्त कर ली है. श्री हरि बोले- आपने काम पर विजय प्राप्त कर ली है, यह बहुत आसान बात है, जो कोई आपको याद करता है, वह काम पर विजय प्राप्त कर लेता है।
नारद जी श्री हरी से आज्ञा लेकर वंहा से चलते है। वह थोड़ा दूर चलते हैं और एक एक नगर को दखते है। वह नगर भगवान की माया से प्रकट हुआ था. उससे पहले कोई नगर नहीं था। वह नगर बड़ा दिव्य था। नारद जी ने वहां बहुत शोर सुना और वहां पूछा कि यंहा क्या हो रहा है। वहां के लोगो ने कहा कि राजकुमारी का स्वयंवर हो रहा है। नारद जी जिज्ञासावश वहाँ चले गए. वहां पहुंचते ही राजा ने नारद जी को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया।
जब भगवान श्रीहरि ने नारद मुनि जी को दिया अनोखा वरदान

महाराज ने नारद मुनि जी से विनम्रता से कहा, “हम धन्य हैं कि आपके जैसे महात्मा हमारे घर पधारे हैं।” फिर राजा ने आदेश दिया, “राजकुमारी को ले आओ।”
राजकुमारी के आने पर राजा ने कहा, “पुत्री, नारद मुनि को दंडवत प्रणाम करो।”
जैसे ही नारद मुनि ने राजकुमारी को देखा, वे आश्चर्यचकित रह गए और रोमांचित हो उठे। इसके बाद राजा बोले, “महाराज, कृपया राजकुमारी के हाथों की रेखाएँ देखिए और बताइए कि उसे कैसा वर मिलेगा।”
नारद मुनि ने हाथों की लकीरें देखीं और पढ़ा— “अविनाशी लक्ष्मी इससे कभी दूर नहीं होगी, और इसके पति में भगवान के सभी उत्तम गुण होंगे।”
नारद जी बोले, “इसका अर्थ तो यही हुआ कि मैं ही राजकुमारी का पति बनूंगा! देखो, यह भक्ति की महिमा है कि भगवान की इतनी प्रचंड माया में भी उनका स्मरण बना रहा।”
फिर उन्होंने सोचा, “यह तप करने का समय नहीं है कि मैं कठिन साधना करके वरदान माँगूं। इसके बजाय, मुझे सीधे भगवान श्री हरि का स्मरण करना चाहिए और उनसे अपने परम हित के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। यदि वे मुझे अपना स्वरूप प्रदान कर दें, तो राजकुमारी तुरंत मेरा वरण कर लेगी, और यह मानो जीवन भर की तपस्या का फल मिल जाएगा।”
यह सोचकर नारद मुनि एकांत में चले गए और भगवान श्री हरि को पुकारने लगे। उनकी पुकार सुनकर भगवान तत्काल प्रकट हुए।
नारद जी ने प्रार्थना की:
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
भावार्थ-
हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिए। मैं आपका दास हूँ। अपनी माया का विशाल बल देख दीनदयालु भगवान मन-ही-मन हँसकर बोले –
भगवान बोले, “नारद, तुम्हारे लिए जो वास्तव में परम हितकारी होगा, वही मैं करूँगा।”
नारद जी ने भगवान से हरि का स्वरूप माँगा, ताकि वे राजकुमारी से विवाह कर सकें।
भगवान ने “तथास्तु” कहा और नारद जी को हरि रूप प्रदान कर दिया। लेकिन भगवान ने हरि (भगवान) के बजाय हरि (बंदर) का रूप दिया।
नारद मुनि को इसका आभास तक नहीं हुआ।
राजकुमारी का इनकार और नारद जी का क्रोध

आश्चर्य की बात यह थी कि राजा और समस्त जनता Narad Muni जी को उनके सामान्य रूप में देख रहे थे, जबकि राजकुमारी और भगवान शिव के दो पार्षद नारद जी के इस विचित्र रूप को देख रहे थे। राजकुमारी ने जयमाला उठाई और आगे बढ़ी, लेकिन जैसे ही उसकी दृष्टि Narad Muni जी पर पड़ी, वह दूसरी दिशा में चली गई और सोचने लगी, “इस बंदर को यहाँ किसने बैठा दिया?”
Narad Muni जी जहाँ भी जाते, राजा वहीं खड़े हो जाते। नारद जी व्याकुल हो उठे कि राजकुमारी उन्हें देख भी नहीं रही थी। उन्हें यह भी एहसास नहीं हुआ कि उनका स्वरूप बदल गया है। वे सोच रहे थे, “मुझे तो हरि का रूप मिला है, फिर राजकुमारी मुझे स्वीकार क्यों नहीं कर रही?”
तभी उन्होंने देखा—श्यामवर्ण, कमल-नेत्र, किशोर अवस्था में अति सुंदर भगवान श्रीहरि स्वयं राजकुमार के रूप में प्रकट हुए औरराजकुमारी ने उनके गले में माला डाल दी। यह दृश्य देखकर Narad Muni जी को ऐसा लगा मानो उनका जीवन समाप्त हो गया हो।
उन्होंने मन ही मन सोचा, भगवान को अभी आकर मेरी राजकुमारी को छीनने की क्या आवश्यकता थी?”
भगवान शिव के पार्षदों ने Narad Muni जी से कहा, “अपने स्वरूप को देखिए। जल में अपना प्रतिबिंब देखिए।”
जैसे ही Narad Muni जी ने जल में अपना प्रतिबिंब देखा, वे अत्यंत क्रोधित हो उठे और बोले, “हे भगवान! मैंने जीवनभर आपकी भक्ति की, केवल राजकुमारी को प्राप्त करने का वरदान मांगा था, और आपने मुझे ठग लिया! जाओ, मैं तुम्हें श्राप देता हूँ—जैसे मैं अपनी स्त्री के वियोग में दुखी हूँ, वैसे ही तुम भी अपनी स्त्री के वियोग में दुखी रहोगे! जैसे मुझे बंदर का स्वरूप दिया गया, वैसे ही अब एक बंदर ही तुम्हारी सहायता करेगा!”
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गईं, न राजकुमारी ही। तब मुनि ने अत्यंत भयभीत होकर हरि के चरण पकड़ लिए और कहा – हे शरणागत के दुःखों को हरनेवाले! मेरी रक्षा कीजिए।
भगवान ने कहा, “नारद, अब जाओ और भगवान शंकर से मिलो। उन्होंने तुम्हें पहले ही चेतावनी दी थी, लेकिन तुमने उसे अनदेखा कर दिया।”
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
भगवान ने कहा, “जाकर भगवान शंकर के शतनाम का जप करो, तुम्हारे हृदय को तुरंत शांति मिलेगी। शिव के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को कभी मत छोड़ना।”
भगवान की शरण ही माया से मुक्ति का मार्ग

Narad Muni जी केवल एक संत-महात्मा नहीं थे, बल्कि भगवान के 24 अवतारों में से एक थे। जब स्वयं भगवान के अवतारों पर भी माया का प्रभाव पड़ सकता है, तो साधारण मनुष्यों की क्या बात करें? इसलिए, किसी भी साधक या सिद्ध को सदैव भगवान की शरण में रहना चाहिए।
ब्रह्म नहीं, माया नहीं, नहीं जीव नहिं काल।
अपनी हू सुधि ना रही, एक रह्यौ एक नंदलाल॥
न मैं ब्रह्म के विषय में जानना चाहता हूँ, न ही माया के बारे में, न जीव के बारे में और न ही काल के बारे में। मैं अपनी सुध-बुध खो दूँ और बस एक श्री राधा-कृष्ण का ही ध्यान रहे।
जो भी माया को जीतना चाहता है, उसके लिए एकमात्र सहारा है—भगवान के चरणकमल। चाहे उन्हें हरि कहो, शिव कहो, राम कहो—सभी नाम उसी परम तत्व की ओर इंगित करते हैं।
मां मेवं प्रपद्यन्ते, मायामे तम तरन्ति ते।
जो भगवान की शरण में जाता है, वही माया को पार कर सकता है
अहंकार और मोह से मुक्ति का मार्ग
Narad Muni जी की यह कथा हमें सिखाती है कि अहंकार और मोह कितनी जल्दी एक भक्त को भ्रमित कर सकते हैं। भगवान की माया अत्यंत शक्तिशाली है और केवल उन्हीं को मुक्ति मिलती है जो निस्वार्थ भाव से भगवान की शरण में रहते हैं। चाहे हम हरि कहें, शिव कहें, राम कहें—सभी नाम एक ही परम तत्व की ओर इंगित करते हैं। इसलिए, सच्ची भक्ति में अहंकार और इच्छा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। संसार के प्रपंच में जो फँस गया, वह माया के जाल में उलझ जाता है। सच्ची भक्ति वही है जहाँ स्वार्थ और अभिमान न हो। भगवान का नाम ही वह दीपक है, जो अज्ञान के अंधकार को मिटा सकता है। जो निःस्वार्थ प्रेम से Sharnagati (शरणागति )स्वीकार करता है, वही सत्य को प्राप्त करता है
यह विचार एकान्तिक वार्ता 837, पूज्य प्रेमानंद जी से प्रेरित है। अधिक जानने के लिए, यहां देखें: https://tinyurl.com/4er4kzjk