Naam Jap अपराध – नाम जापक इन 10 अपराधों को न करें

Spiritual Naam Jap guide explaining the 10 Naam Aparadh and how to avoid them for successful mantra chanting.

अगर हम Naam Jap करते हैं, तो हमारी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं—इसमें कोई संशय नहीं है। भगवान की प्राप्ति भी हो जाती है—इसमें भी कोई संशय नहीं। हमारे जीवन की सभी त्रुटियाँ, नाम-जप के बल से दूर हो जाती हैं।

लेकिन दस नामा-अपराध ऐसे हैं, जिनके कारण Naam Jap का फल प्राप्त नहीं होता। यदि ये दस अपराध हमारे जीवन में हैं, तो कितना भी Naam Jap कर लें, हमें अपेक्षित लाभ नहीं मिलेगा। फिर मन में यह भ्रम पैदा हो जाता है कि “इतने दिन से नाम जप रहा हूँ, कोई लाभ नहीं मिला।”

इसलिए हमारी प्रार्थना है कि— नाम-जप थोड़ा भी करें, पर इन दस नामा-अपराधों से बचकर करें।

अब ध्यानपूर्वक सुनिए — दश नामा-अपराध 

Table of Contents

पहला नाम अपराध – संत-पुरुषों की निंदा करना

दस-नामा अपराधों में पहला और प्रमुख अपराध है संत-पुरुषों की निंदा। क्योंकि नाम-दाता सदैव कोई न कोई संत या सद्गुरु ही होते हैं, जिनसे हमें नाम प्राप्त होता है। 

आप राधा नाम जपते हों, राम नाम जपते हों, शिव नाम जपते हों या कृष्ण नाम —आपने यह नाम किसी संत या सद्गुरु के मुख से ही सुना। इसीलिए यदि Naam Jap करते हुए हम किसी भी संत की निंदा करते हैं, तो यह नाम-अपराध हमारे ऊपर लागू हो जाता है और नाम हमें फल नहीं देता।

निंदा से बचने के तीन मुख्य उपाय

जीवन में इन तीन बातों से बचें :

  1. पर-दोष दर्शन (दूसरों की गलतियाँ देखना)
  2. पर-दोष श्रवण (दूसरों की बुराई सुनना)
  3. पर-दोष कथन (दूसरों की बुराई कहना)

यदि इनसे बचेंगे तो यह अपराध बन ही नहीं पाएगा।

जब कोई गलती दिखे तो क्या करें?

यदि कोई गलत दृश्य या आचरण सामने आए और वह व्यक्ति आपका

  • मित्र हो,

  • शिष्य हो,

तो आप प्रेम से समझा सकते हैं। लेकिन यदि वह आपका नजदीकी नहीं है, तो हमारे लिए यही उचित है—

तेरे भावे जो करे, भलो बुरो संसार।
नारायण तू बैठ के, अपनो भवन बुहार।

अर्थात —दूसरा क्या अच्छा या बुरा कर रहा है, उसका निर्णय भगवान करें; हमारा काम है अपने हृदय और व्यवहार को पवित्र रखना।

निंदा का फल अत्यंत भयानक

परनिंदा के किये तें, आवत नहीं कछु हाथ |
मूर्ख पर्वत पाप को, लै चल्यौ अपने साथ |

परनिंदा से किसी के कुछ हाथ नहीं लगता। हे महा मूर्ख तू पाप का पहाड़ व्यर्थ में अपने साथ लिए जा रहा है। पर-निंदा करते-करते हाथ तो कुछ लगता नहीं, पर पाप की गठरी बाँधकर नरक को जाना पड़ता है। भक्तों की निंदा तो और भी भयंकर है:

भक्तन निंदा अति बुरी, भूल करे जिन कोइ।
सुकृत बहु जन्म के, छिन में डारे कोइ।

अर्थात —भक्त की निंदा करने से अनेक जन्मों के पुण्य पलभर में नष्ट हो जाते हैं। संस्कृत में भी कहा गया है—संत की अवज्ञा संपूर्ण कल्याण को नष्ट कर देती है।

साधु अवज्ञा तुरत भवानी, कर कल्याण अखिल के हानि।

संत-द्रोह, वैष्णव-द्रोह और गुरु-द्रोह – महान अपराध

  • संत-द्रोह

  • वैष्णव-द्रोह

  • गुरु-द्रोह

ये तीनों महान अपराध हैं। इनसे सदा बचना चाहिए। इसलिए — नाम-जापक कभी संत की निंदा न करे, कभी वैष्णव की निंदा न करे, कभी गुरुजनों की निंदा न करे। जब हम निंदा से दूर रहते हैं, तब Naam Jap पर कोई अपराध नहीं लगता और नाम अवश्य फलीभूत होता है।

दूसरा नाम-अपराध : भगवान शिव और श्रीहरि में भेद मानना

सरा नाम-अपराध है—भगवान शंकर और भगवान श्रीहरि में भेद करना, उनके नामों में भेद मानना। रामचरितमानस में कागभूषुण्डि जी अपने पूर्वजन्म की कथा सुनाते हैं कि वे अवध के एक ब्राह्मण बालक थे और भगवान शंकर के चरणों में अत्यंत प्रेम रखते थे। उन्होंने उज्जैन में गुरु से दीक्षा प्राप्त की। गुरु अत्यंत ज्ञानी, तपस्वी और भगवत्प्रेमी संत थे। उन्होंने उन्हें शंकर-मंत्र दिया, परंतु स्वयं हरि-भक्ति का भी उपदेश करते थे।

कागभूषुण्डि जी के मन में गलत भाव उत्पन्न हो गया—गुरु शंकर-मंत्र देते हैं, पर हरि की वाणी करते हैं। यह संदेह धीरे-धीरे गुरु-द्रोह और अश्रद्धा में बदल गया। एक दिन गुरु जी उनके पास आए, पर कागभूषुण्डि जी ने उठकर प्रणाम भी नहीं किया। यह अत्यंत भारी अपराध है, क्योंकि गुरु के सामने पहुँचने पर विनम्रता, श्रद्धा और प्रणाम अनिवार्य है।

उसी क्षण भगवान शिव अप्रसन्न हुए, और आकाशवाणी हुई—अरे दुष्ट! तेरे गुरु आए और तू अजगर की तरह बैठा रहा। तू हजार जन्मों तक अजगर योनि को प्राप्त होगा। यह श्राप इसलिए मिला कि उन्होंने गुरु का अनादर किया और शिव तथा हरि के भावों में भेद स्वीकार किया।

गुरु जी ने यह आकाशवाणी सुनी तो करुणा से भर गए। उन्होंने भगवान शिव की स्तुति—‘नमामि शमीशान निर्वाण रूपम्…’ का पाठ किया। उनकी करुणा से भगवान शिव प्रसन्न हुए और बोले—शंकर जी उस बालक से बोले — तेरे गुरुजी की करुणा देखकर श्राप तो समाप्त नहीं होगा, परंतु तेरा जन्म-मरण बहुत शीघ्र होगा। जन्म-मरण में जो दुःख सहना पड़ता है, वह तुझे नहीं होगा। और मेरे प्रताप से अब तेरे हृदय में अविचल रामभक्ति जागृत होगी।

शिव और श्रीहरि में भेद मानना नाम-अपराध है।

आज भी कुछ वैष्णव, शैवों की निंदा करते हैं और कुछ शैव, वैष्णवों की। ऐसा करने से दोनों ही परमार्थ (आध्यात्मिक उन्नति) से वंचित हो जाते हैं। जो वैष्णव होकर शिव की निंदा करता है या शैव होकर हरि की निंदा करता है, वह दोनों ही मार्गों से गिर जाता है।

इसलिए—भगवान शिव और श्रीहरि में कभी भेद न करें। उनके नामों और स्वरूपों में भेद न मानें। दोनों एक ही परम तत्त्व के दिव्य रूप हैं।

तीसरा नाम-अपराध : नामदाता गुरुदेव का अपमान करना

तीसरा नाम-अपराध है—नाम देने वाले गुरु का किसी भी प्रकार से अपमान करना। हमारा तन, मन, धन, प्राण—सब कुछ गुरुदेव का है। इसलिए गुरु का अनादर, अवमानना, अवज्ञा या कठोर वचन—सब कुछ अत्यंत गंभीर अपराध हैं। मोक्ष का मूल गुरु-कृपा है, इसलिए चाहे जितना Naam Jap कर लें, यदि गुरु अप्रसन्न हैं तो भगवत-प्राप्ति नहीं हो सकती।

यदि कभी अनजाने में हमसे गुरु-विरुद्ध कोई आचरण हो जाए, तो हमें शांत, नम्र और पश्चात्तापपूर्ण रहना चाहिए। जब गुरु हृदय से प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं, तब ही साधक की आध्यात्मिक उन्नति होती है।

देवर्षि नारद जी का प्रसंग — गुरु-दर्शन में त्रुटि

एक बार देवर्षि नारद जी वैकुण्ठ पहुँचे। भगवान से मिलकर लौटे, तो एक पार्षद ने वहाँ जहाँ वे बैठे थे, जल छिड़ककर स्थान पवित्र किया। नारद जी को आश्चर्य हुआ और उन्होंने भगवान से पूछा। भगवान ने कहा—तुम अभी निगुड़ा हो, क्योंकि तुमने गुरु नहीं बनाया। मेरे भजन से मेरी प्राप्ति तो हो गई, परंतु तुम पूर्ण पवित्र नहीं हुए।

नारद जी ने पूछा—प्रभु, फिर मैं गुरु किसे बनाऊँ? भगवान बोले—प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में जिसका प्रथम दर्शन हो, उसे गुरु बना लेना।

अगले दिन भगवान ने लीला की और स्वयं ही कहार (पानी ढोने वाले) का रूप धारण कर नारद जी के पहले दर्शन दिए। परंतु नारद जी के मन में विचार आया—कहार को गुरु कैसे बना लें?
उन्होंने गुरु की जाति व कर्म पर दृष्टि रखकर संदेह कर दिया।

नारद जी पुनः भगवान के पास पहुँचे। भगवान ने कहा—तुमने गुरु की जाति और आचरण में दोष खोजा। इसलिए तुम्हें श्राप है—84 लाख योनियों में बार-बार जन्म-मरण भोगो।

नारद जी भगवान के चरणों में गिर पड़े—प्रभु, मेरा उद्धार कैसे होगा? भगवान ने कहा—जिसे गुरु बनने से तुमने रोका, उसी से जाकर समाधान पूछो।

गुरु-कृपा का प्रभाव — 84 लाख योनियों से मुक्ति

नारद जी पुनः उस कहार रूपी भगवान के पास पहुँचे, साष्टांग दंडवत किया और सारी घटना बताई। अपने दोष को स्वीकार कर गुरु से क्षमा माँगी। गुरुदेव ने ज़मीन पर एक घेरा खींचा, उसमें 84 बिंदु बनाए और बोले— इनके भीतर प्रवेश करो। नारद जी उस घेरों में गए और तुरंत बाहर आ गए।

गुरु बोले— अब तुम 84 लाख योनियों से मुक्त हो गए। सिर्फ एक क्षण में गुरु-कृपा ने नारद जी का शाप नष्ट कर दिया।

सार — गुरु-द्रोह सबसे भारी अपराध

इसलिए—

  • नामदाता गुरु का कभी अपमान न करें।

  • गुरु के प्रति द्रोह, अवज्ञा, कटु वचन, संदेह या अहंकार न रखें।

  • छोटी-सी गलती पर भी हमें विनम्र होकर गुरु के चरणों की ओर देखना चाहिए।

क्योंकि—गुरु-द्रोह से जितना भी भजन कर लो, शांति, मंगल और भगवत-प्राप्ति संभव नहीं। मोक्ष मूलम् गुरु-कृपा।

चौथा नाम-अपराध : किसी भी शास्त्र की निंदा न करना

चौथा नाम-अपराध है—किसी भी शास्त्र की निंदा करना। यदि आपको कोई विशेष शास्त्र, वेद, पुराण या संत-वाणी प्रिय हो, तो इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य शास्त्रों का तिरस्कार करें। प्रत्येक शास्त्र अपने-अपने मार्ग का उद्घाटन करता है। संसार में अनेक आध्यात्मिक मार्ग हैं—कुछ वेदमार्ग के, कुछ पुराणमार्ग के, कुछ संतमत के, कुछ निराकार उपासना के, कुछ साकार उपासना के।

आप जिस मार्ग से जुड़े हों, उसी पर शांति से चलें; परंतु अन्य मार्गों या शास्त्रों की निंदा कभी न करें। निंदा करने से साधक के भीतर दोष उत्पन्न होता है और उसके द्वारा किया गया जप, तप, साधना—कभी सिद्ध नहीं होती।

आजकल कुछ निराकार उपासक पुराणों की निंदा करते हैं, और कुछ लोग वेदों के महत्व को घटाते हैं। यह अत्यंत घोर अपराध है। वेद, शास्त्र और पुराण—ये सब भगवान के ही वचन हैं।
इनकी निंदा करना अर्थात् दिव्य ज्ञान की अवमानना करना।

इसलिए—कभी भी किसी शास्त्र, वेद, पुराण या संत-वाणी की निंदा न करें। यही चौथा नाम-अपराध है।

पाँचवाँ नाम-अपराध : नाम- महिमा को केवल स्तुति समझना (अर्थवाद मानना)

पाँचवाँ नाम-अपराध है—भगवान के नामों की महिमा को मात्र स्तुति या बढ़ा-चढ़ाकर कही हुई बात मानना, जिसे शास्त्रों में अर्थवाद कहना कहते हैं। शास्त्रों में नाम की जो अनंत महिमा बताई गई है—जैसे नाम के समान कोई तीर्थ नहीं, नाम के समान कोई पुण्य नहीं, नाम के समान कोई ज्ञान नहीं, नाम के समान कोई धर्म नहीं, नाम से बढ़कर कुछ नहीं— यह सब सत्य है, अतिशयोक्ति नहीं।

यदि कोई व्यक्ति यह सोचने लगे कि—ये तो बस प्रशंसा है… एक नाम से भला त्रिभुवन का कल्याण कैसे हो सकता है?” या इतनी महिमा तो संभव नहीं… यह तो सिर्फ स्तुति-मात्र है।

तो ऐसा सोचना नाम का पाँचवाँ अपराध है। नाम की महिमा अनंत है, और यह महिमा संत, शास्त्र, पुराण, वेद—सभी के वचनों में प्रमाणित है। इसलिए—नाम-स्तुति को अतिशयोक्ति या असंभव मानना नहीं चाहिए। नाम की महिमा को कमतर आँकना ही पाँचवाँ नाम-अपराध है।

छठा नाम-अपराध : नाम के बल पर पाप करना

छठा नाम-अपराध है—भगवान के नाम के सहारे पाप करना। शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान का नाम सभी पापों को नष्ट करने की शक्ति रखता है। यह बात पूर्णतः सत्य है।  परंतु यदि कोई व्यक्ति यह सोचकर पाप करे कि—मैं सुबह से पाप करता रहूँगा और शाम को राम-राम, कृष्ण-कृष्ण, राधा-राधा जप लूँगा, तो सब पाप मिट जाएँगे—तो यह अत्यंत घोर अपराध है।

ऐसा व्यक्ति छठे नाम-अपराध का भागी बनता है। नाम का प्रताप पापों को अवश्य मिटाता है, जब पाप अनजाने, दुर्बलता या अज्ञान से हो जाएँ। लेकिन यह भावना रखना कि—मैं जानबूझकर पाप करूँगा, और बाद में नाम जपकर सब धो दूँगा—यह नाम का दुरुपयोग है और यह नाम की शक्ति का अपमान है।

ऐसी स्थिति में—

  • पाप नष्ट नहीं होते,

  • व्यक्ति नरकगामी होता है,

  • और नाम-जप व्यर्थ हो जाता है।

इसलिए—नाम के बल पर पाप करना— छठा नाम-अपराध है। नाम पाप का नाश तभी करता है, जब पाप जानबूझकर न किए गए हों।

सातवाँ नाम-अपराध : नाम की समानता किसी अन्य साधन से करना

सातवाँ नाम-अपराध है—भगवान के नाम की तुलना किसी अन्य साधन, यज्ञ, तप, दान या व्रत से करना। शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि नाम के समान कोई साधन नहीं है—न यज्ञ, न तप, न दान, न व्रत।
एक व्यक्ति Naam Jap करता है, दूसरा यज्ञ करता है—यज्ञ करने वाला स्वर्ग लोक को जाता है; तप करने वाला तपलोक को; दान करने वाला पुण्यलोक को; व्रत करने वाला उच्च लोकों को प्राप्त होता है।लेकिन जो Naam Jap करता है, वह इन सब लोकों से आगे बढ़कर स्वयं भगवान को प्राप्त होता है, क्योंकि नाम सीधे भगवान तक पहुँचाता है।

अजामिल का उदाहरण इसके प्रमाण के रूप में दिया जाता है। अंतिम समय में उसने अपने पुत्र “नारायण” को पुकारा, पर नाम तो भगवान का ही निकला। उसी क्षण भगवान के पार्षद आ गए और अजामिल को परम पद की प्राप्ति हुई। यह नाम की अद्भुत शक्ति है, जिसे कोई अन्य साधन प्राप्त नहीं करवा सकता।

इसलिए कहा गया है—यज्ञ, दान, तप, व्रत—यह सब नाम से छोटे हैं। नाम सबसे बड़ा है। यहाँ तक कि स्वयं भगवान से भी बड़ा उनका नाम है, क्योंकि नाम ही भगवान तक पहुँचने का साधन है।

यदि कोई व्यक्ति नाम की बराबरी किसी अन्य साधन या आचरण से करे, या यह सोचे कि यज्ञ, दान, तप, व्रत—नाम के समकक्ष हैं, तो यह सातवाँ नाम-अपराध है।नाम अद्वितीय है, अतुलनीय है—इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।

आठवाँ नाम-अपराध : लोभवश या जबरदस्ती नाम का उपदेश देना

आठवाँ नाम-अपराध है—पैसे के लोभ से नाम का उपदेश करना, या किसी को उसकी इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती दीक्षा देना। नाम अत्यंत पवित्र है। इसे केवल उसी व्यक्ति को देना चाहिए जो श्रद्धापूर्वक, अपनी इच्छा से, नियमों को स्वीकार करते हुए नाम ग्रहण करना चाहता हो।

यदि कोई व्यक्ति नाम सुनना ही नहीं चाहता, या उसके अंदर श्रद्धा नहीं है, और फिर भी कोई व्यक्ति लोभवश उसे नाम दे दे—तो यह बहुत बड़ा अपराध है। नाम-दीक्षा कोई व्यापार नहीं है और न ही इसे किसी लालच के साथ दिया जाना चाहिए।

नाम-दीक्षा के लिए कुछ मूल नियम होते हैं—

  • प्याज-लहसुन न खाना,
  • मांस-मदिरा का त्याग करना,
  • सदाचार का पालन,
  • और भगवत-भक्ति की इच्छा।

जो व्यक्ति इन नियमों को मानने के लिए तैयार हो, केवल उसी को नाम-दीक्षा देनी चाहिए। इसलिए— जो व्यक्ति सुनना न चाहता हो, श्रद्धा न रखता हो, या नियमों को स्वीकार न करता हो, उसे किसी लोभ या दबाव में नाम देना—आठवाँ नाम-अपराध है।

नवाँ नाम-अपराध-नाम-महिमा सुनकर भी नाम जप न करना

जब मनुष्य संतों से या शास्त्रों से हरि-नाम की महिमा सुन लेता है—कि Naam Jap से ही जीवन सुधर जाता है, पाप नष्ट होते हैं और भगवान की प्राप्ति होती है—तो उसके बाद भी यदि वह Naam Jap नहीं करता, तो यह नौवाँ नाम-अपराध माना जाता है। नाम की इतनी महिमा सुनकर भी यदि व्यक्ति उदासीन रहता है और Naam Jap का कोई नियम नहीं लेता, तो यह भगवान की कृपा का अनादर है। इसलिए आवश्यक है कि मनुष्य कम से कम एक छोटा-सा संकल्प अवश्य ले—जैसे “आज से मैं प्रतिदिन ११ माला जपूँगा”, या “नित्य कम से कम इतना समय नाम-स्मरण करूँगा।” नियम लेकर जप आरंभ करना ही नाम-महिमा का सम्मान है। लेकिन जो लोग नाम की महिमा सुनने के बाद भी Naam Jap नहीं करते, वे स्वयं अपने आध्यात्मिक पतन का मार्ग खोलते हैं और उन पर यह नवाँ नाम-अपराध लागू हो जाता है।

दसवाँ नाम-अपराध-नाम-महिमा सुनकर भी अहंकार न छोड़ना

जब मनुष्य सत्संग में बैठकर नाम की महानता सुन लेता है, फिर भी यदि उसके भीतर का अहंकार नहीं टूटता—मेरा पद, मेरी प्रतिष्ठा, मेरा सम्मान—और वह मैं और मेरे के मोह में फँसा रहता है, तो यह दसवाँ नाम-अपराध कहलाता है। विषय-भोगों में आसक्त होकर यदि कोई व्यक्ति भगवान के नाम का आश्रय नहीं लेता, तो वह नाम की कृपा से दूर हो जाता है। अहंकार और आसक्ति नाम के फल को रोक देते हैं।
यदि साधक नाम जपते समय इन दसों नाम-अपराधों से बच जाए, तो नाम बहुत शीघ्र फलीभूत होता है। हरि-नाम उसके सभी पापों का नाश कर देता है, हृदय की सारी कामनाओं को शांत करता है, और अंततः उसे भगवान की परम प्राप्ति कराता है।

यदि नाम-अपराध हो जाए तो क्या करें?

यदि इन दस नाम-अपराधों में से कोई भी अपराध हमसे अनजाने में हो जाए, तो शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है—

नामापराध-युक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्।
अविश्रान्त-प्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥

अर्थात्, यदि किसी प्रकार का नाम-अपराध हो भी जाए, तो भी उसी भगवान का नाम, यदि निरंतर, विनम्रता और श्रद्धा के साथ जपा जाए, तो वह नाम स्वयं उस अपराध का नाश कर देता है।

इसलिए यदि कोई नाम-अपराध हो जाए तो सबसे पहले हाथ जोड़कर भगवान से क्षमा माँगें—
प्रभो, आगे से मैं कोई नाम-अपराध नहीं करूँगा।  इसके बाद निरंतर नाम-स्मरण और नाम-कीर्तन करें। निरंतर जप के प्रभाव से अपराध भी दूर हो जाता है।

अपराधों से बचकर नाम-जप का फल

इन दस नाम-अपराधों का वर्णन इसलिए किया गया है कि आप Naam Jap करते समय सावधान रहें। क्योंकि जब तक ये अपराध बने रहते हैं, वे आपको Naam Jap का पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होने देते। 
लेकिन यदि आप इन दस नाम-अपराधों से बचकर Naam Jap करेंगे, तो आपको अत्यंत शीघ्र लाभ मिलेगा—
पापों का नाश, मन की शांति, और अंततः भगवान की प्राप्ति।

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