Satyanarayan Bhagwan ki Katha की परंपरा केवल पुण्य देने वाली कथा नहीं, बल्कि यह जीवों को पापों से मुक्ति दिलाने का दिव्य मार्ग भी बताती है। इसी पवित्र कथा की शुरुआत भगवान विष्णु एवं नारदजी के संवाद से होती है।
एक बार नारदजी विविध लोकों का भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि मनुष्य अपने पापकर्मों के फलस्वरूप अनेक योनियों में जन्म लेकर असहनीय दुःख भोग रहे हैं।इन्हीं चिंतन में डूबे हुए वे सीधे वैकुण्ठधाम पहुँचे और भगवान विष्णु को प्रणाम करते हुए बोले—“हे प्रभो! आप अनन्त शक्ति के स्वामी, सर्वव्यापक, सर्वात्मा, सृष्टि के कर्ता और सब कारणों के कारण हैं—आपको सादर नमस्कार है।”
भगवान विष्णु ने नारदजी की विनम्र वाणी सुनकर मुस्कुराते हुए कहा—“हे महामुनि! आप यहाँ किस उद्देश्य से पधारे हैं? निःसंकोच कहिए, मैं आपके सभी प्रश्नों का समाधान अवश्य करूँगा।”
तब नारदजी बोले—“हे प्रभो! मैंने मृत्युलोक में असंख्य जीवों को पाप में लिप्त और उनके भयानक फलों को भोगते हुए देखा है। वे अत्यंत दुखी और पीड़ित हैं। कृपया बताइए—ऐसा कौन-सा उपाय है जिससे उनके पाप सहज ही नष्ट हो सकें?
श्रीभगवान्ने कहा — एक अत्यन्त पवित्र व्रत है, जो स्वर्ग और पृथ्वी—दुनिया दोनों पर अति दुर्लभ माना जाता है। इस व्रत का नाम सत्यनारायण-व्रत है। यदि Satyanarayan Vrat का सम्यक् अनुष्ठान किया जाए, तो इस लोक में सुख-समृद्धि प्राप्त होती है और परलोक में मोक्ष की प्राप्ति संभव हो जाती है।
नारदजी ने पुनः प्रश्न किया—इस व्रत का क्या फल है? इसकी विधि क्या है? किसने यह व्रत किया था और कब किया गया था? कृपया इन सब बातों को विस्तारपूर्वक बतलाइए।
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ToggleSatyanarayan Vrat की विधि
मनुष्य को चाहिए कि वह भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन यह Satyanarayan Vrat कर सकता है। किन्तु सत्यनारायण भगवान विशेष रूप से संध्या के समय पूजे जाने पर अत्यंत प्रसन्न होते हैं।धर्मपरायण व्यक्ति को यह व्रत ब्राह्मणों तथा अपने बंधु-बांधवों के साथ मिलकर करना चाहिए।
भोग की वस्तुएँ “सवा” के माप से तैयार करनी चाहिए — जैसे सवा छटांक, सवा पाव या सवा सेर। भोग में केले, घी, दूध, गेहूँ, गेहूँ का आटा रखना चाहिए। यदि गेहूँ का आटा उपलब्ध न हो, तो चावल का आटा, साथ ही चीनी और गुड़ का भी प्रयोग करना चाहिए। (जैसे सवा छटांक लगभग 150 ग्राम, सवा पाव लगभग 375 ग्राम या सवा सेर लगभग 1.25 किलो)। यह माप अपनी सामर्थ्य और सुविधा के अनुसार रखा जा सकता है। मुख्य बात यह है कि हर वस्तु सवा के अनुपात में ही अर्पित की जाए।
ये सभी वस्तुएँ सवा के माप से ही ली जानी चाहिएं। इसके बाद परिवार के सभी सदस्य मिलकर Satyanarayan Bhagwan Ki Katha श्रद्धा से सुनें, और कथा समाप्त होने पर ब्राह्मण को यथाशक्ति दक्षिणा दें। उसके पश्चात ब्राह्मणों को प्रसाद खिलाएँ, फिर अपने बंधु-बांधवों के साथ प्रसाद ग्रहण करें।
पूजा का समापन होने के बाद, भगवान के समक्ष प्रेमपूर्वक नृत्य और भजन-कीर्तन करना चाहिए। फिर स्तुति और स्मरण करके भगवान सत्यनारायण को प्रणाम कर घर लौटना चाहिए। इस प्रकार जो व्यक्ति श्रद्धा, भक्ति और विधिपूर्वक Satyanarayan Vrat करता है, उसे मनवांछित फल प्राप्त होता है। और कलियुग में इससे बढ़कर कोई अन्य उपाय नहीं है।
Satyanarayan Bhagwan Ki Katha-1: निर्धन ब्राह्मण को बढ़ा का दिव्य वरदान
प्राचीन काल में एक निर्धन ब्राह्मण ने सच्चे मन से सत्यनारायण व्रत किया था। कथा के मध्य भाग में वर्णित Satyanarayan Bhagwan Ki Katha से पता चलता है कि उसकी भक्ति से भगवान अत्यंत प्रसन्न हुए और उसके जीवन में सुख-समृद्धि का उदय हुआ।
काशीपुर नामक ग्राम में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। वह अत्यंत निर्धन था और भूख-प्यास से व्याकुल होकर प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था। उसके दुःख को देखकर ब्राह्मण-प्रिय भगवान स्वयं वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके उसके पास पहुंचे। बड़े प्रेम से उन्होंने पूछा—
“ब्राह्मण देवता! आप इतने दुखी होकर पृथ्वी पर क्यों भटक रहे हैं? यदि आप चाहे तो अपना दुःख मुझे बताइए।”
दुखी ब्राह्मण ने उत्तर दिया—मैं अत्यंत गरीब हूँ। भोजन और जीवनयापन के लिए भीख माँगते हुए ही भटकता हूँ। यदि आप कोई उपाय जानते हों तो कृपा करके मुझे बताइए।
भगवान सत्यनारायण का वचन: यह व्रत सभी दुख दूर कर देगा
तब उस वृद्ध ब्राह्मण के वेश में स्वयं भगवान सत्यनारायण ने कहा—“द्विजश्रेष्ठ! सत्यनारायण भगवान मनचाहा फल देने वाले हैं। आप Satyanarayan Vrat करें। इस व्रत को करने से मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है।”
भगवान ने ब्राह्मण के प्रति कृपा करते हुए satyanarayan vrat की पूरी विधि बताई और तत्पश्चात वहीं से अन्तर्धान हो गए। ब्राह्मण यह समझ गया कि स्वयं नारायण ने उसे यह दिव्य मार्ग बताया है। वह रातभर भगवान के स्मरण में जागता रहा और मन ही मन संकल्प किया—
“मैं अवश्य satyanarayan vrat करूँगा।”
अगले दिन वह भिक्षा के लिए निकला और आश्चर्यजनक रूप से उसे बहुत अधिक द्रव्य प्राप्त हुआ। उसी से उसने अपने बंधु-बांधवों के साथ मिलकर विधिपूर्वक satyanarayan vrat किया। व्रत के प्रभाव से वह निर्धन ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त हो गया और धन-समृद्धि से परिपूर्ण हो उठा। तब से वह प्रतिमास यह दिव्य व्रत करता रहा।
भगवान ने नारदजी से कहा—“हे नारद! वे श्रेष्ठ ब्राह्मण, वृद्ध रूप में प्रकट हुए नारायण से सत्यनारायण-व्रत की विधि प्राप्त कर पापों से मुक्त हुए और दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त हुए। जब-जब इस व्रत का पृथ्वी पर प्रचार होगा, तब-तब मनुष्यों के समस्त दुःख तुरंत नष्ट हो जाएंगे।”
Satyanarayan Bhagwan Ki Katha: लकड़हारे का पुण्य और सत्यदेव की कृपा
एक दिन वह श्रेष्ठ ब्राह्मण अपने बन्धु-बाँधवों के साथ अपने वैभव के अनुरूप बड़े श्रद्धा से satyanarayan vrat कर रहा था। Satyanarayan Bhagwan Ki Katha के अनुसार, उसी समय एक लकड़हारा वहाँ आया। उसने अपना लकड़ियों का बोझ बाहर रखा और प्यास से पीड़ित होकर ब्राह्मण के घर के अंदर चला गया।
ब्राह्मण को पूजा में रत देखकर उसने आदरपूर्वक प्रणाम किया और पूछा—महाराज! आप यह कौन-सा कार्य कर रहे हैं? ब्राह्मण ने उत्तर दिया—“यह Satyanarayan Bhagwan का व्रत है। यह व्रत दुःख और दारिद्र्य का नाश करता है, मनोकामनाओं को पूर्ण करता है, तथा पुत्र-पौत्र आदि की वृद्धि करता है। इसी satyanarayan vrat के प्रभाव से मेरा घर धन-धान्य और समृद्धि से भर गया है।”
ब्राह्मण की बात सुनकर लकड़हारे का हृदय प्रसन्न हो गया। उसने जल पिया, प्रसाद ग्रहण किया और स्थिर मन से सत्यनारायण भगवान का चिंतन करते हुए नगर की ओर चला गया।
रास्ते में उसने मन ही मन संकल्प किया—“आज लकड़ियाँ बेचकर जितना भी धन मिलेगा, उसीसे मैं सत्यदेव का उत्तम व्रत करूँगा।”
वह लकड़ियों का बोझ सिर पर उठाकर नगर के समृद्ध क्षेत्र में पहुँचा। वहाँ आश्चर्यजनक रूप से उसे लकड़ियों का दूना मूल्य मिला। यह देख उसका हृदय आनंद से भर उठा।
उसने तुरंत पके केले, चीनी, घी, दूध और गेहूँ का आटा—सब वस्तुएँ सवाया माप (सवा मात्रा) में लेकर घर लौट आया। फिर बंधु-बांधवों को निमंत्रण देकर उसने विधिपूर्वक satyanarayan vrat किया।
इस व्रत की दिव्य शक्ति से वह लकड़हारा धन-संपन्न, पुत्रवान और सुखी हो गया। उसने इहलोक में सुख-समृद्धि भोगी और अंततः सत्यपुर धाम को प्राप्त हुआ।
Satyanarayan Bhagwan Ki Katha-2: व्यापारी, उसकी पत्नी लीलावती और बेटी कलावती की परीक्षा
अब एक और पवित्र घटना सुनो, जो Satyanarayan Bhagwan Ki Katha में उल्लिखित है।
पूर्वकाल में उल्कामुख नामक एक जितेन्द्रिय, सत्यवादी और पराक्रमी राजा थे। वे अत्यंत बुद्धिमान थे और प्रतिदिन भगवान के मंदिर में जाकर पूजा करते तथा दान देकर ब्राह्मणों को संतुष्ट करते थे।
राजा की पत्नी का नाम भद्रशीला था। वह कमल-सी मुख वाली, गुणों से संपन्न, पतिव्रता और सती स्त्री थी। राजा और रानी दोनों समुद्र तट पर जाकर अत्यंत श्रद्धा से satyanarayan vrat किया करते थे।
एक दिन जब राजा अपने बंधु-बांधवों के साथ व्रत कर रहे थे, उसी समय साधु नामक एक व्यापारी वहाँ पहुँचा। वह व्यापार हेतु विभिन्न रत्नों और बहुमूल्य वस्तुओं से भरी नौका लेकर आया था। नाव को किनारे लगाकर वह तट पर चढ़ा और राजा को व्रत करते देखकर विनम्रता से बोला—राजन्! आप यह कौन-सा पवित्र अनुष्ठान कर रहे हैं? भक्ति-भाव से करते हुए इस व्रत को देखकर मेरी जिज्ञासा बढ़ गई है। कृपया समझाकर बताइए।”
राजा उल्कामुख ने प्रेमपूर्वक उत्तर दिया—साधो! मैं अपने बंधु-बांधवों के साथ अतुलनीय तेज वाले भगवान विष्णु की पूजा कर रहा हूँ। यह Satyanarayan Bhagwan का व्रत है। मैं यह व्रत पुत्र प्राप्ति और कल्याण हेतु कर रहा हूँ।”
साधु वणिक को व्रत की विधि का ज्ञान – Satyanarayan Vrat Katha
व्यापारी ने राजा उल्कामुख को आदरपूर्वक प्रणाम करके कहा—“राजन्! कृपा करके इस पवित्र Satyanarayan Vrat और Satyanarayan Bhagwan Ki Katha की संपूर्ण विधि बताइए। मेरी भी कोई संतान नहीं है। मुझे विश्वास है कि इस व्रत से मुझे अवश्य ही पुत्र-लाभ होगा।
राजा ने व्यापारी को व्रत और कथा की विधि विस्तार से बताई। विधि जानकर वह अपने व्यापार का कार्य पूरा करने के बाद आनंदपूर्वक घर लौट आया। कुछ ही समय बाद उसकी पतिव्रता पत्नी गर्भवती हुई और समय आने पर उसने एक अत्यंत सुंदरी कन्या को जन्म दिया।
कलावती का जन्म और वणिक की प्रतिज्ञा
कन्या चंद्रमा की शुक्ल कला की भाँति प्रतिदिन बढ़ने लगी। व्यापारी ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों से संस्कार करवाकर उसका नाम रखा — कलावती। कुछ समय बाद उसकी पत्नी लीलावती ने मधुर वाणी में कहा—स्वामी! आपने जो पहले satyanarayan vrat करने की प्रतिज्ञा की थी, उसे अब पूरा क्यों नहीं कर रहे हैं?
व्यापारी ने उत्तर दिया—प्रिये! मैं कलावती के विवाह के समय अवश्य Satyanarayan Bhagwan का व्रत करूँगा। लेकिन समय बीतता गया और वह प्रतिज्ञा भूल गया।
कलावती का विवाह – Satyanarayan Bhagwan Ki Katha
जब कलावती विवाह योग्य हुई, तब व्यापारी ने अपने बंधु-बांधवों से परामर्श कर दूत को वर खोजने के लिए भेजा। दूत कांचन नगर गया और कलावती के योग्य एक उत्तम वणिक कुमार को लेकर वापस आया।
व्यापारी ने अत्यंत प्रसन्न होकर अपनी बेटी का विवाह विधिपूर्वक उस वणिक-पुत्र से कर दिया।
लेकिन इस शुभ अवसर पर भी व्यापारी satyanarayan vrat की प्रतिज्ञा भूल गया — इसी कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गए। कुछ समय बाद व्यापारी अपने जामाता के साथ व्यापार हेतु निकला और राजा चन्द्रकेतु के राज्य—रत्नसार नगर—में पहुँचा। वहीं उसने व्यापार आरंभ किया।
उसी समय प्रभु Satyanarayan ने व्यापारी की भूल देखकर कहा—तू मेरी उपेक्षा कर मिथ्या बोलने वाला है। अतः शीघ्र ही दुख को प्राप्त होगा।”
उसी दिन राजमहल से एक चोर धन चुराकर व्यापारी के घर के समीप से भागा। भयवश चोर धन वहीं फेंककर भाग गया। राजदूतों ने धन वहीं पाया और व्यापारी व उसके जामाता को चोर समझकर पकड़ लिया। दोनों को बाँधकर राजा के सामने ले जाया गया और बिना किसी विवेचना के कारागार में डाल दिया गया।
घर में लीलावती और कलावती का दुख
उधर व्यापारी के घर सत्यनारायण भगवान के शाप से दुख-कष्ट बढ़ने लगे। सारी संपत्ति चोरों ने लूट ली। लीलावती भूख-प्यास से पीड़ित होकर नगर में भटकने लगी।
एक दिन कलावती भी भीषण भूख से तड़पकर घर से निकली। वह एक ब्राह्मण के घर पहुँची, जहाँ satyanarayan vrat हो रहा था। Satyanarayan Bhagwan Ki Katha सुनकर कलावती ने मनोकामना पूर्ति हेतु प्रार्थना की और प्रसाद लेकर घर लौटी।
लीलावती का व्रत एवं राजा चन्द्रकेतु को सत्यानारायण भगवान का आदेश
कन्या की बात सुनकर लीलावती व्रत करने के लिए तैयार हुई। उस साध्वी, धर्मपरायण साधु-पत्नी ने अपने सुदृढ़ बंधुओं के साथ मिलकर Satyanarayan Vrat विधिपूर्वक सम्पन्न किया।
वह बार-बार प्रार्थना करती रही—हे Satyanarayan Bhagwan! मेरे स्वामी और जामाता शीघ्र घर लौट आएँ। उनके अपराधों को क्षमा कर दीजिए।
व्यापारी-पत्नी की श्रद्धा से सत्यनारायण भगवान अत्यंत प्रसन्न हुए। अतः उन्होंने उसी रात श्रेष्ठ राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा—“राजन्! प्रातःकाल होते ही दोनों वणिकों को कारागार से मुक्त कर देना। तुमने जो धन उनसे छीना है, उसका दुगुना उन्हें लौटा देना। यदि ऐसा न किया तो मैं तुम्हारे राज्य, धन और पुत्र का विनाश कर दूँगा।”
इतना कहकर भगवान सत्यानारायण अंतर्धान हो गए। सुबह होते ही राजा चन्द्रकेतु सभा में पहुँचे और अपने सेवकों को आज्ञा दी—तुरंत जाकर दोनों बंदी महाजनों को मुक्त कर दो। राजा की आज्ञा पाकर दूतों ने दोनों वणिकों को कारागार से बाहर निकाला और विनयपूर्वक उन्हें राजा के समक्ष ले आए।
दोनों वणिकों को अचानक सब स्मरण हो गया—उनके द्वारा भूला हुआ Satyanarayan Vrat,
और भगवान की दिव्य महिमा। वे भाव-विह्वल होकर राजा चन्द्रकेतु को प्रणाम करने लगे। राजा ने भी उन्हें देखकर स्नेहपूर्वक कहा—दैवयोग से तुम्हें यह कष्ट सहना पड़ा। अब भय मत करो—तुम पूर्णतया मुक्त हो।
इसके बाद राजा चन्द्रकेतु ने सोने और रत्नों से बने गहनों से दोनों वणिकों को सम्मानित किया,
मधुर वाणी से उनका मनोबल बढ़ाया, और छीने गए धन से दुगुना धन लौटाते हुए कहा—अब अपने घर जाओ। सुखपूर्वक रहो।
दण्डी रूप में सत्यनारायण भगवान का दर्शन और वणिक का अहंकार
व्यापारी ने राजा को प्रणाम करके कहा—राजन्! आपकी कृपा से ही मैं अपने घर लौटने योग्य हो सका। इसके बाद उसने मंगलाचार करके यात्रा आरम्भ की, मार्ग में ब्राह्मणों को दान दिया और जामाता के साथ अपने नगर की ओर चल पड़ा।
कुछ ही दूर बढ़ने पर Satyanarayan Bhagwan दण्डी के वेश में उनके सामने प्रकट हुए और पूछने लगे—बताओ, तुम्हारी नाव में क्या है?
प्रमाद और अहंकार से भरे व्यापारी ने हँसते हुए अत्यंत अवमानना से कहा—दण्डी! तुम्हें क्यों जानना है? क्या तुम्हें रुपये चाहिए? मेरी नाव में तो केवल लता-पत्र भरे हैं।”
व्यापारी के कठोर और असम्मानजनक वचन सुनकर दण्डी रूपी सत्यनारायण भगवान बोले—तुम्हारे वचन सत्य हों। और यह कहकर वे वहाँ से चले गए। दण्डी के थोड़ी दूर जाने पर व्यापारी समुद्र तट पर पहुँचा। नित्य-कर्म करके जैसे ही नाव पर चढ़ा, उसने देखा—नाव सचमुच लता-पत्र से भरी पड़ी है! यह दृश्य देखकर वह अत्यंत विस्मित हुआ और मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा।
कुछ देर बाद चेत आने पर वह गहरे शोक और चिंता में डूब गया। जामाता ने श्वशुर का दुःख देखकर कहा—आप क्यों शोक कर रहे हैं? यह सब दण्डी के शाप का फल है। वे सर्वशक्तिमान हैं—वे ही हर्ता-कर्ता हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। हम लोग यदि उनकी शरण लें तो हमारा मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा।
व्यापारी का विलाप और भगवान् दण्डी का उपदेश
जामाता की यह बात सुनकर व्यापारी तुरंत दण्डी (भगवान् के स्वरूप) के पास पहुँचा। उनके दर्शन करके उसने भक्तिभाव से प्रणाम किया और विनम्र होकर बोला— मैं बड़ा दुरात्मा हूँ। आपकी मायामय लीला से मोहित होकर मैंने जो कुछ कहा, उसके लिए मुझे क्षमा करें। मैंने आपके सामने दुष्ट और कठोर वचन कहे हैं। हे नाथ! कृपाकर मुझे क्षमा करें। क्षमा ही साधुओं का वास्तविक धन है। साधुजन तो सदा दूसरों का उपकार करने में लगे रहते हैं।
ऐसा कहकर वह शोक से व्याकुल वणिक् बार-बार प्रणाम करने लगा और रोने लगा। व्यापारी को इस प्रकार विलाप करते देखकर दण्डी ने कहा— रोओ मत, मेरी बात सुनो। दुर्बुद्धि! तुमने मेरा अपमान किया और मेरी पूजा से विमुख हो गए थे। उसी के फलस्वरूप तुम्हें बार-बार दुःख प्राप्त हो रहा है।
भगवान के इन वचनों को सुनकर व्यापारी ने उनकी स्तुति की और बोला— प्रभो! ब्रह्मादि स्वर्गवासी देवता भी आपकी मायाशक्ति से मोहित होकर आपके अद्भुत रूप और गुणों का पूर्ण ज्ञान नहीं कर पाते। मैं भी आपकी मायामाया से बाधित हूँ, फिर आपको कैसे जान सकूँगा?
आप प्रसन्न हों। मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मैं आपके शरण में हूँ—मुझे पुत्र, धन-वैभव प्रदान कीजिए और मेरी रक्षा कीजिए।
सत्यदेव की कृपा और कलावती की परीक्षा
साधु के भक्तिपूर्ण वचनों को सुनकर भगवान जनार्दन अत्यंत प्रसन्न हुए और उसे मनोवांछित वर देकर वहीं अंतर्धान हो गए। इसके पश्चात् जब साधु नाव पर चढ़ा, तो उसने देखा कि नौका रत्नों और धन-वैभव से परिपूर्ण है। वह आनंद से भर उठा और बोला—सत्यदेव की कृपा से मुझे वांछित फल प्राप्त हो गया है।
साधु ने अपने मित्रों के साथ विधिपूर्वक सत्यनारायण भगवान की पूजा की और प्रसन्नचित्त होकर यात्रा आरम्भ की। नौका तीव्र गति से चलती हुई शीघ्र ही अपने देश के समीप पहुँच गई। व्यापारी ने जामाता से कहा— वत्स! देखो, हमारी पुरी दिखाई दे रही है। इसके बाद उसने अपने धन के रखवाले दूत को नगर में सूचना देने भेजा। दूत लीलावती के पास पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला—माताजी! आपके स्वामी नाना प्रकार के धन-रत्नों, अपने जामाता और सुहृद-मित्रों के साथ घर लौट रहे हैं।
यह समाचार सुनकर साध्वी वणिक-पत्नी अत्यंत प्रसन्न हुई। उसने सत्यदेव की पूजा की और अपनी कन्या से कहा—मैं पतिके स्वागत के लिए जा रही हूँ, तुम भी मेरे साथ चलो। माता की आज्ञा सुनते ही कलावती ने सत्यनारायण व्रत पूरा किया, Satyanarayan Bhagwan Ki Katha सुनी परंतु प्रसाद ग्रहण किए बिना ही पति के स्वागत के लिए चल पड़ी। इसी से भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गए।
जैसे ही कलावती किनारे पहुँची, उसी क्षण धन-रत्नों से भरी नाव और उसका जँवाई जल में अदृश्य हो गया। पति को न देखकर कलावती अत्यंत शोकग्रस्त होकर भूमि पर गिर पड़ी और विलाप करने लगी।
कलावती का शोक और सत्यदेव की माया
अपने पति और नाव को न देखकर कलावती अत्यन्त शोकातुर हो गई। कन्या की इस स्थिति को देखकर साधु अत्यन्त भयभीत हो उठा। वह आश्चर्य से सोचने लगा—यह क्या दिव्य घटना घट गई! नाव खेने वाले भी गहरी चिंता में पड़ गए। यह सब देखकर पतिव्रता लीलावती दुःख से विह्वल होकर विलाप करती हुई अपने स्वामी से बोली—
मैंने अभी-अभी जँवाई को देखा था, परन्तु क्षण मात्र में ही नौका सहित वे अदृश्य हो गए। अब कहीं दिखाई नहीं देते। कौन-सा देवता उन्हें इस प्रकार हर ले गया, कौन जानता है! क्या आप सत्यदेव के प्रभाव को नहीं समझते? इतना कहकर लीलावती जोर-जोर से रोने लगी। उसके साथ सभी बंधु-बांधव भी विलाप करने लगे।
लीलावती अपनी पुत्री को गोद में लेकर रुदन करने लगी। स्वामी को डूबा हुआ समझकर कलावती ने अत्यन्त दुःखी मन से पतिकी पादुकाएँ उठाईं और सती होने का दृढ़ निश्चय कर लिया। धर्मज्ञ साधु-वणिक ने कन्या की यह दशा देखी तो वह अपनी पत्नी सहित अत्यन्त व्याकुल हो उठा। उसने मन ही मन चिंतन किया—निश्चय ही सत्यदेव की माया से ही मेरे जामाता अदृश्य हुए हैं। मुझे अवश्य ही अपने वैभव के अनुसार सत्यनारायण भगवान की पूजा करनी चाहिए।
सत्यदेव की करुणा और कलावती का पुनर्मिलन
साधु ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों को बुलाकर पूरी घटना कही और अपना मनोभाव प्रकट करते हुए पृथ्वी पर दण्डवत् होकर कई बार भगवान सत्यदेव को प्रणाम करने लगा। उसकी इस श्रद्धा और समर्पण से सत्यदेव प्रसन्न हो गए। तभी आकाश से भगवान की दिव्य वाणी प्रकट हुई—साधो! तुम्हारी कन्या ने मेरे भोग का तिरस्कार कर पति को देखने के लिए शीघ्रता से प्रस्थान किया। इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया। अब वह घर जाकर प्रसाद ग्रहण करे और फिर यहाँ लौट आए। तब उसे अवश्य ही अपने पति का सुख प्राप्त होगा—इसमें तनिक भी संदेह नहीं।
आकाश से प्रसारित यह जीवनदायी वाणी सुनते ही वणिक-कन्या कलावती शीघ्रता से घर गई और वहाँ पहुँचकर भक्तिभाव से प्रसाद ग्रहण किया। प्रसाद लेने के बाद जब वह पुनः तट पर लौटी, तो उसने अपने पति, नाव और समस्त बंधु-बांधवों को यथावत् खड़ा पाया। यह दृश्य देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हो गई।
व्यापारी ने विधिपूर्वक सत्यनारायण भगवान की पूजा की और धन-रत्न सहित समस्त बंधुओं के साथ अपने घर लौट आया। तदनन्तर वह प्रत्येक संक्रांति और पूर्णिमा के दिन श्रद्धापूर्वक सत्यनारायण व्रत करता और Satyanarayan Bhagwan Ki Katha सुनता हुआ इस लोक में सुख भोगता रहा और अंत में दिव्य सत्यपुर को प्राप्त हुआ।
Satyanarayan Bhagwan Ki Katha- 3: राजा वंशध्वज और सत्यदेव की महिमा
Satyanarayan Vrat Katha में वर्णित यह तीसरी कहानी राजा वंशध्वज से जुड़ी है, जो प्रजापालन में तत्पर और पराक्रमी थे; परंतु सत्यदेव के प्रसाद का अनादर करने के कारण उन्हें भयंकर दुख सहने पड़े।
पूर्वकाल में राजा वंशध्वज मृगों का शिकार करने के उद्देश्य से वन में गए। कई प्रकार के मृगों का पीछा करने के बाद जब वे थक गए, तो विश्राम करने के लिए एक विशाल बरगद के वृक्ष के नीचे बैठ गए।
वहां उन्होंने देखा कि कुछ ग्वाले (चरवाहे) अपने मित्रों के साथ अत्यंत भक्ति और श्रद्धा से सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे हैं। सभी ग्वाले मन से प्रसन्न थे और मंत्रोच्चारण के साथ विधिपूर्वक व्रत कर रहे थे।
राजा ने पूजा होते हुए देखी, परंतु अहंकार के कारण न तो वे वहाँ गए, न ही सत्यनारायण भगवान को प्रणाम किया। पूजा के बाद ग्वालों ने राजा के लिए थोड़ा प्रसाद भेजा, लेकिन राजा ने वह प्रसाद स्वीकार नहीं किया।
प्रसाद का अनादर — और परिणाम
प्रसाद का तिरस्कार करने के कारण सत्यदेव क्रोधित हुए। परिणामस्वरूप:
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राजा वंशध्वज के सौ पुत्र मर गए
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उनका धन-धान्य नष्ट हो गया
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सम्पूर्ण वैभव समाप्त हो गया
दुःखों से घिरे राजा को समझ में आया कि यह सब सत्यदेव के प्रसाद का अनादर करने का फल है।
राजा का पश्चाताप और सत्यदेव की कृपा
मन में गहरा पछतावा लेकर राजा ने निश्चय किया कि वह उसी स्थान पर जाकर सत्यनारायण भगवान की पूजा करेंगे, जहाँ ग्वाले व्रत कर रहे थे। वह ग्वालों के समीप पहुँचे और अत्यंत विनम्रता, भक्ति तथा श्रद्धा के साथ सत्यनारायण व्रत किया तथा Satyanarayan Bhagwan Ki Katha का श्रवण किया। उनकी सच्ची प्रार्थना और गहन पश्चाताप को देखकर भगवान सत्यनारायण अत्यंत प्रसन्न हुए और उन पर कृपा बरसाई।
परिणामस्वरूप राजा:
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फिर से धन-धान्य से सम्पन्न हुए
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उन्हें नए पुत्र प्राप्त हुए
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राज्य में शांति और सुख लौटा
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अंत में वे विष्णुपुर धाम को प्राप्त हुए
सत्यनारायण व्रत का फल — अंतिम निष्कर्ष
जो मनुष्य इस परम दुर्लभ और पवित्र Satyanarayan Vrat का श्रद्धापूर्वक आचरण करता है और भक्तिभाव से Satyanarayan Vrat Katha का श्रवण करता है, वह भगवान सत्यनारायण भगवान (सत्यदेव) की दिव्य कृपा से धन-धान्य, सुख-समृद्धि और मनोवांछित फल प्राप्त करता है।
इस व्रत के प्रभाव से—
दरिद्र को धन प्राप्त होता है,
बंदी बंधन से मुक्त होता है,
भयभीत व्यक्ति सभी प्रकार के भय से छुटकारा पाता है,
और मनुष्य इस लोक में सभी इच्छित फल पाकर अंत में सत्यपुर धाम को प्राप्त होता है।
यह सत्य है, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं। विशेष रूप से कलियुग में यह व्रत महान फल देने वाला है। भगवान को कोई “सत्यनारायण”, कोई “सत्यदेव” के नाम से पूजता है—परंतु वे नाना-नाना रूप धारण करके सभी भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं।
शास्त्रों में कहा गया है कि कलियुग में यही सत्यदेव ‘सत्यव्रत’ के रूप में अवतीर्ण होंगे, जो अपने भक्तों की रक्षा करेंगे और उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—चारों पुरुषार्थ प्रदान करेंगे।
जो मनुष्य प्रतिदिन इस Satyanarayan Bhagwan Ki Katha का पठन या श्रवण करता है, सत्यदेव के प्रसाद से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और जीवन में शुभता, शांति और समृद्धि का वास होता है।
Wishing you all a life filled with devotion, positivity, and Satyanarayan Bhagwan’s blessings.
हरे कृष्ण राधे राधे।
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