Govardhan पूजा: जिस दिन श्रीकृष्ण जी ने 7 दिन तक गोवर्धन पर्वत उठाया

Shri Krishna lifting Govardhan Hill in Vrindavan to protect villagers and animals during a storm — divine scene of Govardhan Pooja and Giriraj Leela.

दीपावली के अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को मनाई जाने वाली Govardhan Pooja केवल एक पर्व नहीं, बल्कि श्रद्धा, कृतज्ञता और विश्वास का प्रतीक है।
यह वही दिन है जब भगवान श्रीकृष्ण ने व्रजवासियों को इन्द्र के अहंकार और प्रकोप से बचाने के लिए Govardhan पर्वत को अपनी छोटी उँगली पर उठा लिया था। इन्द्र का प्रकोप भयंकर था — सातों दिन और सातों रातें लगातार वर्षा होती रही।
तब सिर्फ सात वर्ष के बालक श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी उँगली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया और समस्त व्रजवासियों, गौओं तथा बालकों की रक्षा की।

Govardhan पूजा के दिन भक्तजन गोबर से गोवर्धन पर्वत की आकृति बनाकर उसकी पूजा करते हैं, गायों, गौशालाओं और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं आइए आगे पढ़ें और जानें भगवान श्रीकृष्ण की Giriraj लीला के अद्भुत रहस्य और इसका महत्व।

Table of Contents

भगवान् श्रीकृष्ण और Govardhan पूजा का प्रारंभ

भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी के साथ वृंदावन में रहकर अनेकों अद्भुत लीलाएँ कर रहे थे। एक दिन उन्होंने देखा कि वहाँ के सभी गोपजन बड़े उत्साह से इंद्रयज्ञ की तैयारी में लगे हुए हैं। सर्वज्ञ और सर्वांतर्यामी भगवान् Sri Krishna से कुछ भी छिपा नहीं था, फिर भी वे विनम्रता से नंदबाबा और अन्य वृद्ध गोपों के पास गए और विनीत भाव से पूछने लगे

पिताजी! आप लोग यह कौनसा बड़ा कार्य कर रहे हैं? यह कौनसा उत्सव है? इसका फल क्या है? किस उद्देश्य से और किन साधनों द्वारा यह यज्ञ किया जाता है?”

नंदबाबा ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया
बेटा! यह इंद्रयज्ञ है। भगवान् इंद्र ही वर्षा के अधिपति हैं। उनके ही द्वारा मेघ प्रकट होते हैं और वे समस्त प्राणियों को जीवन देने वाला जल बरसाते हैं। हम सब लोग उन्हीं मेघपति भगवान् Indra की पूजा यज्ञों के द्वारा करते हैं। जिन सामग्रियों से यज्ञ किया जाता है, वे भी उन्हीं के बरसाए हुए जल से उत्पन्न होती हैं। यज्ञ के उपरांत जो अन्न शेष रहता है, उसी से हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और काम की सिद्धि के लिए जीवनयापन करते हैं। खेती आदि हमारे सभी प्रयत्नों को फल देने वाले भी वही इंद्र देव हैं। यह धर्म हमारे कुल की प्राचीन परंपरा से चला रहा है।

यदि कर्मोंको ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवोंके कर्मका फल देनेवाला ईश्वर माना भी जाय तो वह कर्म करनेवालोंको ही उनके कर्मके अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करने-वालोंपर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती।जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मोंका ही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्रकी क्या आवश्यकता है? इसलिये पिताजी! मनुष्यको चाहिये कि पूर्व-संस्कारोंक अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुकूल धर्मोंका पालन करता हुआ कर्मका ही आदर करे। जिसके द्वारा मनुष्यकी जीविका सुगमतासे चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है।

श्रीकृष्ण द्वारा Govardhan पूजा का उपदेश

Lord Shri Krishna ने प्रेमपूर्वक कहा — “पिताजी! जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोगते हैं, तब हमें Indra की क्या आवश्यकता है? मनुष्य अपने स्वभाव, अर्थात् पूर्व संस्कारों के अधीन रहता है और उसी का अनुसरण करता है। जीव अपने कर्मों के अनुसार ही कभी उत्तम, कभी अधम शरीर धारण करता और त्यागता रहता है। अपने कर्मों के प्रभाव से ही वह यह मानता है — ‘यह मेरा मित्र है, यह शत्रु है, यह उदासीन है।’ वस्तुतः कर्म ही गुरु है और कर्म ही ईश्वर।

पिताजी! इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार क्रमशः सत्त्व, रज और तम — इन तीन गुणों से होती है। यह विविध रूपों वाला संपूर्ण जगत स्त्री-पुरुष के संयोग से, रजोगुण की प्रेरणा से उत्पन्न होता है। उसी रजोगुण की प्रेरणा से मेघ सब ओर वर्षा करते हैं। वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है और अन्न से ही सभी जीवों का पालन होता है। फिर इसमें इंद्र का क्या संबंध? वे क्या कर सकते हैं?

ब्रज में पहली बार हुआ गोवर्धन पूजा का आयोजन

हमारे पास न किसी राज्य का आधिपत्य है, न बड़े-बड़े नगर हैं, न ही भव्य गृह। हम तो सदैव वनवासी हैं — हमारे घर तो यही वन और गिरिराज पर्वत हैं। अतः हमें गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराज गोवर्धन का यज्ञ करना चाहिए।

इंद्र-यज्ञ के लिए जो सामग्री एकत्र की गई है, उसी से इस गौ,Giriraj,पूजा का आयोजन करें। अनेक प्रकार के स्वादिष्ट पकवान — खीर, हलवा, पूआ, पूरी और मूँग की दाल आदि तैयार करें। व्रज का सारा दूध एकत्र कर लिया जाए। वेदपाठी ब्राह्मणों द्वारा विधिवत हवन कराया जाए और उन्हें अन्न, गौएँ तथा दक्षिणा प्रदान की जाए।

यह भी ध्यान रहे कि चांडाल, पतित और यहाँ तक कि कुत्तों को भी यथोचित दान देकर तृप्त किया जाए, तथा गौओं को चारा खिलाया जाए। इसके बाद गिरिराज को भोग लगाया जाए। फिर सब लोग प्रसाद ग्रहण करें, सुंदर वस्त्र पहनें, आभूषण धारण करें, चंदन लगाएँ और हर्षपूर्वक गौ, ब्राह्मण, अग्नि तथा गिरिराज Govardhan Parikrama करें।

पिताजी! मेरी तो यही सम्मति है। यदि आप सबको यह उचित लगे तो ऐसा ही कीजिए। यह यज्ञ गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराज के साथ-साथ मुझे भी अत्यंत प्रिय होगा।”

Lord Shri Krishna की यह बात सुनकर नंदबाबा और सभी गोपजन बड़े आनंद और श्रद्धा से सहमत हो गए।

गिरिराज गोवर्धन की पूजा और भगवान् श्रीकृष्ण का दिव्य रूप

भगवान् श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार का यज्ञ करने का उपदेश दिया था, उसी प्रकार का यज्ञ नंदबाबा और गोपों ने आरंभ किया। पहले ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर, उसी संकलित सामग्री से गिरिराज और ब्राह्मणों को आदरपूर्वक भेंटें अर्पित कीं तथा गौओं को हरीहरी घास खिलाई। इसके पश्चात नंदबाबा और सभी गोपजन गौओं को आगे करके Govardhan Parikrama करने लगे।

ब्राह्मणों का आशीर्वाद प्राप्त कर, वे और गोपियाँ सुंदर श्रृंगार कर बैलों से जुती हुई गाड़ियों पर सवार होकर, भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करती हुई हर्षोल्लास से Govardhan Parikrama करने लगीं।

उसी समय, व्रजवासियों का विश्वास दृढ़ करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गिरिराज पर्वत के ऊपर एक दिव्य, विशाल रूप धारण किया और प्रकट होकर बोले
मैं ही गिरिराज हूँ।

वे साक्षात गिरिराज के रूप में प्रकट होकर व्रजवासियों द्वारा चढ़ाई गई सारी सामग्री को स्वयं ग्रहण करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उसी विराट स्वरूप को प्रणाम किया और व्रजवासियों से कहा
देखो! कितना अद्भुत दृश्य है! गिरिराज साक्षात् प्रकट होकर हम सब पर कृपा कर रहे हैं। वे अपनी इच्छा से कोई भी रूप धारण कर सकते हैं। जो जीव इनका निरादर करते हैं, उनका विनाश कर देते हैं। अतः आओ, हम सब मिलकर इन गिरिराज को नमस्कार करें ताकि हमारा और हमारी गौओं का कल्याण हो।

Lord Shri Krishna की प्रेरणा से नंदबाबा और अन्य वृद्ध गोपों ने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन किया। पूजा सम्पन्न होने के बाद, सभी व्रजवासी बड़े आनंद और भक्ति के साथ श्रीकृष्ण के संग व्रजधाम लौट आए।

Lord Indra unleashing thunder and rain over Vrindavan village before Shri Krishna lifts Govardhan Hill — dramatic scene from Sri Krishna Govardhan Leela.

इंद्र का क्रोध और व्रज पर आक्रमण

जब इंद्र को पता चला कि उनकी पूजा बंद कर दी गई है, तो वे नंदबाबा और अन्य गोपों पर अत्यन्त क्रोधित हो उठे। अपने पद पर उन्हें बड़ा घमण्ड थावे स्वयं को त्रिलोक का अधिपति समझते थे। क्रोध से उबलकर इंद्र ने प्रलयकारी मेघों के संचालन करने वाले सांवर्तक गणों को व्रज पर हमला करने का आदेश दिया तथा कटु शब्दों में कहा — “ये जंगली ग्वाले किस तरह के घमण्ड में हैं!

यह सब तो धन के नशे का असर है। देखो, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के कारण इन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। कृष्ण, चाहे जितना भी बकवादी, नादान या अभिमानी क्यों हो, अपनी चालाकी से इन अहीरों को उकसा देता है। ये लोग पहले से ही धन के नशे में चूर हैं और अब कृष्ण ने उन्हें और बढ़ावा दे दिया है।

अब तुम लोग जाओ और उनके इस घमण्ड और हेकड़ी को मिटा दो; उनके पशुओं का संहार कर दो। मैं ऐरावत पर चढ़कर, मरुदगणों के साथ व्रज का संहार करने रहा हूँ।

इंद्र का यह क्रोधित आदेश सुन कर महाप्रलयकारी मेघगण और मारक सैन्यबल तुरन्त तैयार हो गए, और व्रज पर भारी वर्षा तूफ़ानी तबाही लाने के लिए उठ चले।

इन्द्र का घमण्ड और व्रज पर प्रलयकारी वर्षा

इन्द्र ने इसी प्रकार प्रलयकारी मेघों को आज्ञा दी और उनकी बंदिशें खोल दीं। वे तीव्र वेग से नंदबाबा के व्रज पर चढ़ आएँ और मूसलधार जल बरसाकर सम्पूर्ण व्रज को कष्ट में डाल दिया। चारों ओर बिजली चली, बादल आपस में टकराए और कड़कने लगे; प्रचण्ड आँधियों की प्रेरणा से बड़ेबड़े ओले झड़ने लगे।

दलदल बादल बारबार आकर खम्भों की तरह मोटीमोटी धाराएँ गिराने लगे, जिससे व्रजभूमि का हर कोना जलमग्न हो गया और ऊँचनीच का पता लगाना भी कठिन हो गया।

मूसलधार वर्षा और झंझावत के झटकों से पशुपक्षी ठिठुरने लगे; ग्वाल और ग्वलिनियाँ अत्यन्त व्याकुल हो उठीं। वे सब भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में आए। वर्षा से त्रस्त होकर उन्होंने अपनेअपने सिर और बच्चों को अपनी बाँहों के नीचे छिपा लिया था और कांपते हुए भगवान् की चरणशरण में पहुँचकर बोले — “प्यारे श्रीकृष्ण! अब केवल तुम्हारे ही भाग्य से ही हमारी रक्षा होगी।

हे प्रभु! इस संपूर्ण गोकुल के एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक केवल आप ही हो; भक्तवत्सल! इन्द्र के क्रोध से अब आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं।

जब कृष्ण ने कहा — “व्रज मेरा आश्रित है, मैं इसकी रक्षा करूँगा”

Shri Shri Krishna ने देखा कि वर्षा ओलों की मार से सब पीड़ित होकर बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गए कि यह सब इन्द्र की करतूत हैइन्द्र ने क्रोधवश ऐसा किया है। वे मनहीमन कहने लगे — “हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया, इसीलिए वे व्रज का नाश करने के लिये ऋतु के विपरीत यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं।

अच्छामैं अपनी योगमाया से इसका उत्तर दूँगा। इन दुष्टों के ऐश्वर्य, पद और धन का घमण्ड मैं चूरचूर कर दूँगा। देवता तो सत्वप्रधान होने चाहिएँ; उनमें अहंकार नहीं होना चाहिए। अतः इन सत्त्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान हरण कर दूँगाजिससे अन्ततः उन्हें ही शान्ति प्राप्त होगी। यह संपूर्ण व्रज मेरे आश्रित हैं, मेरे द्वारा स्वीकृत हैं, और एकमात्र मैं ही इनका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमाया से इनकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना मेरा धर्म हैऔर अब उसका पालन करने का समय गया है।

श्रीकृष्ण द्वारा Govardhan पर्वत धारण कर व्रज की रक्षा

इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज Govardhan पर्वत को उखाड़ लिया। जैसे कोई बालक वर्षा के समय खिलौना छाता या फूल तोड़कर हाथ में पकड़ लेता है, वैसे ही भगवान ने सहज भाव से उस विशाल पर्वत को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर धारण कर लिया।

इसके बाद Shri Shri Krishna ने व्रजवासियों से कहा —
“माताजी, पिताजी और प्रिय व्रजवासियो! तुम सब अपनी गौओं, परिवार और आवश्यक वस्तुओं के साथ इस पर्वत की छाया में आकर निश्चिन्त होकर बैठ जाओ। यह चिंता मत करो कि यह पर्वत मेरे हाथ से गिर पड़ेगा। तनिक भी भय मत करो — इस आँधी-पानी से तुम्हें बचाने के लिए ही मैंने यह उपाय किया है।”

भगवान श्रीकृष्ण के आश्वासन से सबके मनों में शांति आ गई। सभी ग्वाल-बाल, अपने गोधन, गाड़ियाँ, आश्रित, पुरोहित और सेवकों के साथ अपनी-अपनी सुविधा अनुसार Govardhan पर्वत के नीचे आकर ठहर गए।

सात दिन, सात रात, एक अंगुली — श्रीकृष्ण की अद्भुत गोवर्धन लीला

भगवान श्रीकृष्ण ने सब व्रजवासियों के देखते-देखते सात दिनों तक लगातार उस पर्वत को एक ही हाथ से थामे रखा। उन्होंने न भूख-प्यास का अनुभव किया, न विश्राम की आवश्यकता हुई। वे अचल और प्रसन्न भाव से सबकी रक्षा करते रहे।

यह अद्भुत दृश्य देखकर इन्द्र स्तब्ध रह गए। उनका सारा अहंकार चूर हो गया और वे अपने असफल संकल्प से लज्जित हो उठे। उन्होंने तुरंत अपने मेघों को वर्षा रोकने का आदेश दिया।

जब Govardhan धारी श्रीकृष्ण ने देखा कि आँधी-पानी रुक गया है, आकाश निर्मल हो गया है और सूर्य की किरणें पुनः धरती पर चमकने लगी हैं, तब उन्होंने गोपों से कहा —
“प्रिय गोपों! अब भय छोड़ दो। अपनी स्त्रियों, बच्चों और गोधन सहित बाहर आ जाओ। देखो, अब न वर्षा है, न आँधी; नदियों का जल भी उतर चुका है।”

भगवान की आज्ञा पाकर सब व्रजवासी अपने-अपने परिवार, गौओं और सामग्री के साथ हर्षपूर्वक बाहर निकल आए। उनका हृदय कृतज्ञता और भक्ति से भर गया — क्योंकि उन्होंने स्वयं गोवर्धनधारी भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य हाथों से अपनी रक्षा होते देखी थी। सर्वशक्तिमान्‌ भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी सब प्राणियोंके देखते-देखते खेल-खेलमें ही गिरिराजको पूर्ववत्‌ उसके स्थानपर रख दिया । 

इसी लीला से व्रजवासी प्रेमपूर्वक श्रीकृष्ण कोगिरिधरनाम से पुकारने लगे।

गोवर्धन धारी श्रीकृष्ण का व्रजवासियों से मिलन और प्रेमोत्सव

व्रजवासियों के हृदय प्रेम और आनंद के उमंग से भर उठे थे।
ज्यों ही भगवान श्रीकृष्ण ने Govardhan पर्वत को भूमि पर रखा, सभी व्रजवासी उनकी ओर दौड़ पड़े। कोई उन्हें अपने हृदय से लगा रहा था, कोई उनके चरणों को चूम रहा था। सब ओर उल्लास और भक्ति की लहर दौड़ गई।

बड़ी-बूढ़ी गोपियों ने प्रेम और स्नेह से दही, अक्षत (चावल), जल आदि से भगवान का मंगल तिलक किया और उन्मुक्त हृदय से आशीर्वाद देने लगीं।
माँ यशोदा, रोहिणी माता, नन्दबाबा और बलवानों में श्रेष्ठ बलरामजी ने भी स्नेहातुर होकर श्रीकृष्ण को हृदय से लगाया और उन्हें आशीर्वाद दिया।

श्रीकृष्ण का वचन: “जो मेरी शरण में आता है, उसे मैं अभय कर देता हूँ”

उसी समय आकाश में स्थित देवता, सिद्ध, साध्य, गन्धर्व और चारणगण प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति करने लगे। स्वर्ग में शंख, नगाड़े और नौबतें बजने लगीं। तुम्बुरु आदि गन्धर्वराज भगवान श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं का गान करने लगे और पुष्पवृष्टि से व्रजभूमि को सुगंधित कर दिया।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने व्रज की यात्रा आरंभ की। उनके साथ भ्राता बलरामजी थे, और प्रेममय ग्वालबाल उनके इर्द-गिर्द सेवा करते हुए चल रहे थे। प्रेम में विभोर गोपियाँ, अपने हृदय को मोहित करने वाले, उसमें प्रेम जगाने वाले श्रीकृष्ण की Govardhan धारण लीला का गान करती हुईं, आनंदपूर्वक व्रज लौट आईं।

तब भगवान Sri Krishna ने अपने वचन द्वारा यह दिव्य आश्वासन दिया—

“जो एक बार भी मेरी शरण में आ जाता है और कहता है — हे प्रभु, मैं तुम्हारा हूँ’,
उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से निडर और अभय कर देता हूँ। यही मेरा अटल व्रत है।”

गोवर्धन पूजन के समय की प्रार्थना और विधि

Govardhan Pooja के समय इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए: “पृथ्वी को धारण करने वाले गोवर्धन! आप गोकुल की रक्षा करने वाले हैं। भगवान् विष्णु ने अपनी भुजाओं से आपको ऊँचा उठाया था।

आप मुझे कोटि गौदान  देने वाले हों। लोकपालों की जो लक्ष्मी यहाँ धेनुरूप में विराजमान हैं और यज्ञ के लिए घृत का भार वहन करती हैं, वह मेरे पापों को दूर करें। गायें मेरे आगे हों, गायें मेरे पीछे हों, गायें मेरे हृदय में हों, और मैं सदा गौओं के मध्य निवास करूँ।”

इस प्रकार Govardhan Puja करके उत्तम भाव से देवताओं, सत्पुरुषों तथा साधारण मनुष्यों को संतुष्ट करें।

  • अन्य लोगों को अन्न-भोजन देकर प्रसन्न करें।
  • विद्वानों को संकल्पपूर्वक वस्त्र, ताम्बूल आदि प्रदान करें।
  • उस दिन गौओं को भोजन आदि से भली-भांति पूजित करें।
  • उन्हें अलंकरण से सजाएँ।
  • गाने-बजाने आदि के साथ सभी को नगर से बाहर ले जाकर आरती उतारें।

ऐसा करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

Wish You Happy Govardhan Puja!

इस पावन अवसर पर हम सभी को Govardhan Puja की हार्दिक शुभकामनाएँ। यह पर्व केवल पूजा-पाठ का उत्सव नहीं, बल्कि भक्ति, प्रेम और प्रकृति के प्रति आभार का प्रतीक है।

Govardhan Parikrama  इस पर्व का विशेष आकर्षण है। भक्तजन पर्वत की परिक्रमा करते हुए गायों, गौशालाओं और प्रकृति का सम्मान करते हैं। यह हमें याद दिलाता है कि ईश्वर हमारे चारों ओर, प्रकृति और जीव-जंतुओं में भी निवास करते हैं।

Hare Krishna, Radhe Radhe!

  • पूज्य Premanand Ji महाराज जी  के अमृतमयी प्रवचनों को पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध पूज्य Premanand Ji महाराज जी की वाणी अनुभाग अवश्य देखें। यहाँ उनकी दिव्य शिक्षाओं और भक्ति से जुड़े अनेक प्रेरणादायक लेखों का संग्रह है।
  •  यदि आप पूज्य Premanand Ji महाराज जी महाराज को स्वयं बोलते हुए सुनना चाहते हैं, तो  यहाँ क्लिक करें — उनके एक दुर्लभ और हृदयस्पर्शी प्रवचन को सुनने के लिए।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *