महाराष्ट्र के महान संत चोखा मेला जी का जीवन भक्ति, त्याग और समर्पण का अद्वितीय उदाहरण है। वे गृहस्थ संत थे, जिन्होंने ईश्वर की आराधना को ही अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया था। उनका जीवन कठिनाइयों से भरा था, लेकिन उनकी आस्था अडिग थी।
क्या सच में भगवान किसी जाति, कुल या सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हैं? क्या उनका प्रेम केवल विशेष लोगों के लिए आरक्षित होता है? महाराष्ट्र के संत चोखा मेला जी की कहानी इस सवाल का उत्तर देती है। जब समाज ने उन्हें मंदिर से बाहर निकाल दिया, तो भगवान विट्ठल ने स्वयं चमत्कार कर उनकी भक्ति को स्वीकार किया। यह सिर्फ एक भक्त की परीक्षा नहीं थी, बल्कि पूरे समाज के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश था – सच्ची भक्ति के आगे सभी बाहरी भेदभाव मिट जाते हैं।”
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Toggleईश्वर के लिए सेवा और समर्पण

चोखा मेला जी अपने श्रम से जो भी अर्जित करते थे, उसमें से कुछ हिस्सा भगवान विट्ठल के भोग के लिए अर्पित करते थे। एक दिन जब चोखा मेला जी बाजार गए, तो उन्होंने देखा कि वहाँ सुंदर और बड़े केले रखे हुए हैं। यह देखकर उनके मन में विचार आया कि उन्हें भगवान विट्ठल को अर्पित करना चाहिए। इस भावना से प्रेरित होकर, उन्होंने सब्जी न खरीदकर भगवान के लिए केले खरीद लिए। लेकिन मंदिर में प्रवेश का अधिकार न होने के कारण वे द्वार पर खड़े होकर प्रार्थना करने लगे और आवाज लगाने लगे, “भगवान के लिए केले का भोग लगा दीजिए।”
भगवान की लीलाएं अपरंपार होती हैं। मंदिर के सेवकों ने चोखा मेला जी को धक्का देकर बाहर निकाल दिया और तिरस्कार किया। उन्होंने कहा, “तुम क्या सोचते हो? दो-चार बार भगवान का नाम लेने से इतने बड़े भक्त बन जाओगे कि तुम्हारे हाथ का अर्पित किया हुआ भोग भगवान स्वीकार कर लेंगे?”
इस अपमान से चोखा मेला जी को तनिक भी कष्ट नहीं हुआ, लेकिन वे भगवान से एकांत में बात करने लगे। उन्होंने प्रार्थना की, “प्रभु! मुझे इस बात का दुख नहीं कि मुझे अपमानित किया गया, लेकिन आपने यह सब क्यों किया? मेरे मन में आपकी सेवा की भावना जागी, मैंने आपके लिए केला अर्पित करने का विचार किया, तो फिर आपने मुझे ऐसी जाति में जन्म क्यों दिया, जिसे आपकी सेवा का अधिकार नहीं? प्रभु, आप तो सर्वशक्तिमान हैं, आप सब कुछ कर सकते हैं।”
उन्होंने संकल्प लिया कि जब तक भगवान स्वयं उनकी सेवा स्वीकार नहीं करेंगे, वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे। वे अपने कक्ष में चले गए और द्वार बंद कर लिया।
भगवान की कृपा

यह कहानी चोखामेला जी की भक्ति और भगवान के प्रेम की अद्भुत घटना को दर्शाती है। जब मंदिर में ठाकुर जी को शयन कराया गया, तो वे बाहर निकलकर चोखामेला जी की कुटिया के द्वार पर आए और दरवाजा खटखटाने लगे। चोखामेला जी अचंभित होकर पूछते हैं कि कौन है? ठाकुर जी उत्तर देते हैं कि वे बहुत भूखे हैं। जैसे ही दरवाजा खुलता है, चोखामेला जी भगवान को सामने देखकर भावविभोर हो जाते हैं और उनकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं।
ठाकुर जी कहते हैं कि उन्हें बहुत भूख लगी है। चोखामेला जी के पास भोजन में सिर्फ केले होते हैं, जिन्हें वे भगवान को अर्पित करते हैं। पहले वे हिचकिचाते हैं कि भगवान को यह साधारण भोजन कैसे दें, लेकिन ठाकुर जी प्रेमपूर्वक कहते हैं कि वे जो भी प्रेम से अर्पित करते हैं, वही उन्हें प्रिय होता है। जब चोखामेला जी भगवान के लिए बैठने की व्यवस्था करने लगते हैं, तो ठाकुर जी उन्हें रोककर उनके गोद में ही बैठ जाते हैं और वहीं बैठकर केले खाने लगते हैं। ठाकुर जी प्रेमपूर्वक केले खाते हैं और कहते हैं कि मंदिर के भोग में भी उन्हें ऐसा स्वाद नहीं मिला। फिर ठाकुर जी चोखामेला जी से कहते हैं कि वे उन्हें दो केले दें ताकि वे उन्हें मंदिर में रुक्मिणी जी के लिए ले जा सकें।
चोखामेला जी दो केले ठाकुर जी को दे देते हैं, और शेष केले ठाकुर जी स्वयं खा लेते हैं। इसके बाद ठाकुर जी मंदिर लौट जाते हैं और वे दो केले रुक्मिणी जी को भोग स्वरूप अर्पित करते हैं। जब रुक्मिणी जी वे केले खाती हैं, तो ठाकुर जी उनके छिलके मंदिर के आंगन में फेंक देते हैं। जब सुबह मंदिर के पुजारी और सेवक आते हैं और केले के छिलके देखते हैं, तो सब आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि भगवान ने चोखामेला जी का अर्पित प्रसाद स्वीकार किया। कुछ लोग इस बात से नाखुश होते हैं, लेकिन तभी मंदिर से ठाकुर जी की दिव्य वाणी गूँजती है कि उनके लिए भक्ति ही सबसे बड़ा आधार है, न कि जाति, कुल, साधना या तपस्या। यह सुनकर सभी लोग नतमस्तक हो जाते हैं और चोखामेला जी की भक्ति को स्वीकार कर लेते हैं।
भगवान की आज्ञा और भक्त की महिमा

भगवान ने आदेश दिया कि जब तक चोखा मेला जी मंदिर में प्रवेश नहीं करेंगे, तब तक मंदिर के द्वार नहीं खुलेंगे। सेवकों ने जाकर चोखा मेला जी से प्रार्थना की, लेकिन वे सहज भाव से बोले, “मैं कौन होता हूँ मंदिर का द्वार खुलवाने वाला?”
भगवान ने पुनः आदेश दिया, “उनके पास पालकी लेकर जाओ, और यदि वे ना आएं तो उनके चरण पकड़कर विनती करो। वही मेरे सच्चे भक्त हैं।” जिन सेवकों ने उन्हें अपमानित किया था, वही अब उनके चरण पकड़कर प्रार्थना करने लगे। चोखा मेला जी का हृदय द्रवित हो उठा और वे पालकी में बैठकर मंदिर आए। जैसे ही उन्होंने कहा, “प्रभु, द्वार खोलिए,” वैसे ही मंदिर के द्वार अपने आप खुल गए।
भक्ति का चमत्कार

इस घटना से सभी को यह शिक्षा मिली कि भगवान जाति, कुल, साधना या तपस्या से नहीं, बल्कि केवल प्रेम और भक्ति से प्रसन्न होते हैं। जिन्होंने कभी चोखा मेला जी को अपमानित किया था, वही आज उनकी महिमा का गुणगान कर रहे थे। इस प्रकार, चोखा मेला जी की भक्ति और सेवा का चमत्कार सम्पूर्ण समाज के लिए एक अमूल्य प्रेरणा बन गया।
जय जय चोखा मेला जी!
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