गढ़वाल की वादियों में, जहां प्रकृति अपनी सुंदरता और रहस्यों से हर किसी को मंत्रमुग्ध कर देती है, वहीं एक ऐसा स्थान है जो आस्था, चमत्कार, और दिव्यता का प्रतीक है और वह है —Sidhbali Mandir. उत्तराखंड के Kotdwar की पहाड़ियों में स्थित यह Uttarakhand temple भक्तों के लिए सिर्फ एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि आत्मिक शांति और आशीर्वाद पाने का केंद्र है। लेकिन क्या आप जानते हैं, इस मंदिर से जुड़ी कहानी कितनी रोचक और प्रेरणादायक है? यह एक साधारण बच्चे की असाधारण यात्रा की कहानी है, जो बाद में सिद्धबाबा बना । आइए, इस पवित्र स्थल की कथा में गोता लगाएँ, जहां हर पत्थर, हर वृक्ष, और हर कहानी कुछ कहती है । Sidhbali Mandir Kotdwar की यह गाथा आपके दिल को छू जाएगी और आपको इस स्थान की दिव्यता का एहसास कराएगी।
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ToggleSidhbali Mandir Kotdwar की कथा: 80 साल के राजा और 7 साल की बेटी का अद्भुत स्वयंवर"
गढ़वाल के एक प्राचीन जागर के अनुसार, Sidhbali Mandir Kotdwar के सिद्धबाबा गोरखनाथ नहीं, बल्कि उनके शिष्य काली हरपाल थे, जो गुरु गोरखनाथ के आशीर्वाद से एक सिद्ध पुरुष बने। यह कहानी भगवान बुद्ध के जन्म, उनके अंतिम निधन और बौद्ध धर्म के पतन के समय से शुरू होती है। उसी कालखंड में महाराजा कनकपाल के वंशज, महाराजा हरपाल ने उत्तराखंड के जोशीमठ क्षेत्र पर शासन किया। उनके पुत्र कुंवरपाल ने उनका विशाल साम्राज्य संभाला, जो पर्वतीय क्षेत्र (भीतरी दूण) से लेकर भाबर (मालकी दूण) तक फैला हुआ था। हालाँकि, महाराजा कुंवरपाल के लिए सबसे बड़ी चुनौती उनकी पहली रानी से संतान न होना थी। उन्होंने दो और रानियों से विवाह किया, लेकिन उन्हें कोई वारिस नहीं मिला। इस निराशा में, उन्होंने 80 वर्ष की उम्र में गुरु गोरखनाथ का स्मरण करना शुरू किया। गुरु गोरखनाथ ने उनके सपने में आकर कहा, “महाराजा, तुम्हारी संतान अवश्य होगी।
किसी समय की बात है, राजा के अधीन एक घना जंगल था, जहां एक छोटे से गांव के चरवाहे रहते थे। उन चरवाहों में एक छोटी सी लड़की थी, जिसका नाम विमला था। एक दिन, जंगल में दो भैंसों के बीच जबरदस्त लड़ाई छिड़ गई। भैंसों के इस संघर्ष ने पूरे जंगल में हड़कंप मचा दिया, लेकिन कोई भी उन्हें शांत करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। तभी, सात साल की विमला ने निडर होकर भैंसों के बीच दखल दिया और एक अद्भुत साहस का परिचय देते हुए दोनों को अलग करने में सफल रही। उसकी बहादुरी और साहस से प्रभावित होकर उसके पिता ने एक कसम ली—”मैं अपनी बेटी की शादी उसी से करूंगा जो ऐसी ही हिम्मत दिखा सके।” यह खबर जल्द ही पूरे राज्य में फैल गई, और सब लोग इस अनोखे स्वयंवर के बारे में चर्चा करने लगे।
राजा कुंवरपाल भले ही उम्र में बूढ़े हो चुके थे, लेकिन उनका साहस आज भी भरपूर था। उन्होंने स्वयं इस चुनौती में भाग लेने का निर्णय लिया। राजा ने भैंसों के बीच लड़ाई की और बड़ी ही वीरता से उन्हें अलग किया। यह देखकर सभी लोग हैरान रह गए । लेकिन अब एक नई चिंता उभरी। विमला के पिता, जो कि इस विवाह को लेकर बहुत चिंतित थे, सोचने लगे, “मैं अपनी सात वर्षीय बेटी का विवाह इस बूढ़े राजा से कैसे करूंगा?” यह सोचकर वह बहुत परेशान थे, लेकिन विमला ने अपने पिता को समझाया, “आपने जो वचन लिया है, उसे पूरा करें।” अपनी बेटी की बात मानकर, मुखिया ने विमला का विवाह महाराजा कुंवरपाल से कर दिया।
कंडाली की झाड़ियों में छुपा रानियों का षड्यंत्र | गोल पत्थर से भैरव का जन्म
Sidhbali की कहानी आगे बढ़ती है, जैसे ही विमला राजा की चौथी रानी बनकर राजधानी पहुँची, उसकी सौतने उससे जल-भुन गई। और वे विमला के विरुद्ध जाल रचकर इसे राज्य से बाहर करने की कोशिश करने लगी।
कुछ समय पश्चात् रानी विमला ने उसे बतलाया कि वह आपके पुत्र की माँ बनने वाली है. यह सुनकर राजा का मन आनन्द से भर गया. अन्य तीनों रानियों को जैसे ही यह समाचार मिला तो वे जल-भुन कर राख हो गयी। वे विमला को ऐसी खाद्य सामग्री देती जिससे उसका गर्भ गिर जाय, लेकिन विमला का बाल बांका भी नहीं हुआ। इस बीच महाराजा जंगल में शिकार करने के लिए चले गये, और सेवकों को यह निर्देश दिया कि जैसे ही रानी का पुत्र उत्पन्न हो उसे नगाड़ा बजाकर सूचना दे दें, ताकि मैं राजमहल में आकर पुत्र का मुख देख सकूँ। कुछ दिन बाद रानी विमला ने एक सुन्दर तेजस्वी बालक को जन्म दिया, लेकिन उसकी सौतनों ने पुत्र जन्म से पूर्व उसकी आँखों में यह कहकर पट्टी बाँध दी कि “पहली बार पुत्र जन्म देने वाली माता को अपना पुत्र नहीं देखना चाहिए इससे अनिष्ट होता है”। जैसे ही शिशु का जन्म हुआ उसे कंडाली (बिच्छू घास) की झाडियों में फेंक दिया और दूसरी ओर राजा कुँवरपाल को नगाड़ा बजाकर पुत्र जन्म की सूचना दे दी।
रानियों ने एक चल चली और जैसे ही राजा नगर को लौटा, रानियों ने राजा के समक्ष एक गोल पत्थर दिखाकर कह दिया कि विमला ने इस पत्थर को पैदा किया है । राजा को इससे बड़ा क्रोध आया और उसने विमला को वह गोल पत्थर देकर वनवास दे दिया। अपने साथ हुए इस अत्याचार से पीड़ित विमला रोती-पीटती गोल पत्थर को साथ लेकर गढ़वाल की पूर्वी नयार के तट पर एक कुटिया बनाकर रहने लगी। उधर राजधानी में तीनों रानियों ने बच्चे को कंडाली (बिच्छू घास) की झाडियों से बाहर निकाला और महाराजा के पास ले जाकर पहली रानी ने दूसरी रानी को दिखाकर कहा “महाराज ! इस रानी ने यह शिशु जना है, इसे ही आप अपना पुत्र समझिये” राजा को यह देखकर बड़ा हर्ष हुआ। एक दिन जैसे ही शिशु बारह दिनों का हुआ, तीनों रानियाँ उसे नहलाने के लिए नयार तट पर ले गयी। रानियों ने बच्चे को जैसे ही नहलाने के लिए उसके शरीर से कपड़े निकाले, पास बैठी रानी विमला ने उसे देख लिया। उसे देखते ही रानी के स्तनों से दूध झरने लगा, इससे उसे आभास हो गया कि “यही गुरु गोरखनाथ जी द्वारा दिया गया उसका वरदानी पुत्र है, जिसे रानियों ने छिपा लिया था।” इस पर वह जोर-जोर से रोते हुए रानियों से शिशु छीनने लगी। इस छीना झपटी से शिशु रोने लगा। जिसकी भनक रानियों के साथ आये सैनिकों को लगी और उन्होने इसकी सूचना राजा को दे दी।
राजा ने जब देखा कि रानियाँ आपस में बच्चे के लिए आपस में झगड़ रही है तो राजा ने यह शर्त रखी कि “चारों ही रानियाँ, अपने-अपने स्तनों को एक के बाद एक कपड़े की दस पट्टियां से बाँधे, जिसकी दूध की धार इन पट्टियो को फाड़कर शिशु के मुँह में पड़ेगी, हम समझ जायेंगे कि वहीं बच्चे की असली मां है। इस परीक्षा में सफल होने के लिए चारों रानियों ने अपने-अपने स्तनों पर कपड़े की दस-दस पट्टियाँ बाँधी । रानी विमला की दूध की धारा इन पट्टियों को फाड़कर बच्चे के मुँह में जा गिरी, जिसे बच्चे ने पेट भर पिया। यह सब देख राजा ने तीनों रानियों को जब सख्ती से पूछा कि “यह शिशु किसका है?” तो उन्होने सारा रहस्य उगल दिया। इसके बाद राजा ने शिशु के नामकरण के लिए पंडितो को बुलाया। पंडितों ने कंडाली की झाडियों से प्राप्त होने वाले इस शिशु का नाम कलि हरिपाल रख कर इसे रानी विमला को सौंप दिया। इस पर रानी विमला ने अपने पास रखे पत्थर के गोले को धरती में पटका। जैसे ही पत्थर फूटा उससे भैरव उत्पन्न हो गया। इसके पश्चात् राजा ने विमला को अपने साथ चलने के लिए कहा, लेकिन रानी ने भविष्य में भी उसकी सौतने उससे कोई छल न करें, राजा के साथ चलने से इन्कार कर दिया। इसके बाद राजा कुंवर पाल तीनों रानियों को लेकर राजधानी चला गया। यह कथा Sidhbali Mandir Kotdwar में श्रद्धालुओं के बीच गहरी श्रद्धा और आस्था का कारण बनी हुई है.
धौल्या उड्यारी में छिपा सच्चा हीरो | रानी विमला और कलिहरपाल का संघर्ष
राजा के अपने राज्य लौट जाने के पश्चात् रानी विमला ने दक्षिण गढ़वाल की ओर प्रस्थान किया। कुछ दिनों पश्चात् रानी राजा की दूसरी पट्टी- सीला पहुँची, वही के एक जंगल में कुछ दिन रहने के बाद वह पूर्व में भौड़ाखाल अलेठी और फिर पलेठी होते हुए धौल्या उड्यारी पहुँची। धौल्या उड्यारी में ही गुरु गोरखनाथ जी ने तपस्या कर असीम सिद्धियाँ प्राप्त की थी। वह दिन-रात मेहनत करके अपना तथा राजकुँवर कलिहरिपाल का पालन-पोषण करने लगी। कलिहरिपाल बहुत बहादुर हो चुका था और उसकी बहादुरी की चर्चा चारों ओर फैल गयी थी । समय बीतता गया, इधर निर्जन वन की धौल्या उड्यारी में कलिहरपाल को उसकी माता विमला जीवन में त्याग और तपस्या की शिक्षा दे रही थी और उधर कैंत्यूरी राजधानी में महाराजा कुँवरपाल की एक रानी ने दूसरे पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया सौसा। अर्थात जो महाराजा कुँवरपाल की सौ साल की अवस्था में उत्पन्न हुआ। सौसा के जन्म पर सारे राज्य में खुशियाँ मनायी गयी। धीरे-धीरे सौसा भी बड़ा होने लगा। उसकी समुचित शिक्षा-दीक्षा हुई लेकिन वह उतना तेजस्वी नहीं था जितना बली कलिहरपाल । राजा की के मृत्यु मृत्यु बाद राजसत्ता रानियों के हाथ में आ गई और राज्य सत्ता डगमगाने लगी। इससे बड़ी रानी कि चिन्ता को बढ़ने लगी। एक दिन जब उसने कलिहरिपाल की बहादुरी की कहानी सुनी तो उसे विश्वास हो गया कि “वह वीर बालक और कोई नहीं महाराजा कुँवरपाल का वरदानी पुत्र कलिहरपाल है। इसलिए रानी ने गुप्तचरों को रानी विमला का पता लगाने का आदेश दिया।
महारानी के आदेश से गुप्तचरों को रानी विमला और कलिहरपाल का पता चल गया जो उस समय 14 वर्ष का हो चुका था,। जिसकी सूचना उन्होंने रानी को दे दी। महारानी को जैसे हो सूचना मिली, उसने अपना एक दूत धौल्या उड्यारी भेजकर रानी मला को वापस राजधानी लौटने आने का सन्देश भिजवा दिया। इस सन्देश को लेकर जिस समय संदेशवाहक, रानी विमला के पास पहुँचा। अपने पुत्र बली कलिहरपाल को भोजन करा रही थी। जैसे ही सन्देशवाहक ने रानी विमला को महारानी का सन्देश सुनाया तो बालक को जिज्ञासा होने लगी कि “यह व्यक्ति कौन है? और वह माता तथा उसे कहाँ और क्यों चलने के लिए कह रहा है?” रानी विमला ने जब सन्देश वाहक की बात सुनी तो उसने स्पष्ट शब्दों में कहा “वह अब वापस राजमहल नहीं आ सकती, उसने बड़ी कठिन तपस्या से बालक की रक्षा की है।” रानी के स्पष्ट अस्वीकृति से सन्देश वाहक खाली हाथ राजधानी लौट गया। परन्तु बालक से किशोर बनते बली कलिहरपाल के मन में यह संदेह जन्म लेने लगा कि “कोई न कोई ऐसी बात अवश्य है जो मेरी माता मुझसे अपने अतीत और मेरे पिता का नाम छिपा रही है।” इसलिए उसने निश्चय कर लिया कि “मैं अपनी माता से यह रहस्य जानकर रहूँगा।” वह माता से हट करने लगा तो अंत में माता ने विवश होकर रहस्योद्घाटन किया कि “मैं आज तक तुझे इस सघन वन में इसलिए छुपाकर पालती रही कि कहीं राजपरिवार तुम्हारी हत्या न कर दे, लेकिन जब तू जानना ही चाहता है तो सुन।” यह कहकर उसने अपना पूरा परिचय देते हुए यह भी बता दिया कि “तुम महाराजा कुँवरपाल के पुत्र हो।
घातक खाई में फंसा वीर राजकुमार | माँ के सपने में आई पुत्र की पुकार
माता के मुख से अपनी जन्म कथा और रानी को दिये जाने वाले इस वनवास का विवरण सुन किशोर राजकुमार उस दिशा की ओर बढ़ने लगे जिस दिशा में राज्य की राजधानी थी। उधर जब राज्य के गुप्तचरों ने राजकुमार सौसा को कठपुतली बनाकर शासन करने वाले सामान्तों को, यह सारी बात सुना दी। यह सुन सामन्त भयभीत हो गये और आपस में विचार करने लगे कि “किसी तरह उस बली किशोर को राजधानी पहुँचने से पूर्व ही मार दिया जाए। जिससे वह राजधानी आकर सत्ता का भागीदार न बन सके।” अपनी इसी योजना को क्रियान्वित करने के लिए उन्होने अपने कुछ विश्वस्त व्यक्तियों से उस मार्ग पर जगह-जगह चौड़ी खाई खुदवाकर उनके अन्दर उलटे भाले गाढ़ दिये और ऊपर से मिट्टी डाल दी, जिस मार्ग से बली कलिहरपाल को राजधानी पहुँचना था।
उधर कलिहरपाल ने एक घोड़े और खड़ग का प्रबन्ध करने के बाद माता से आज्ञा ली और राजधानी की ओर चल पड़ा। जब वह राजधानी के निकट पंहुचा , षडयन्त्रकारियों के द्वारा बिछाये गये जाल में फंस गया। जैसे ही उसका घोड़ा राजमार्ग पर सरपट भाग रहा था, वह कलिहरपाल के साथ मिट्टी से ढकी और भालों के जाल से बुनी खायी में गिर गया। खाई में गाड़े गये भाले इतने पैने थे कि वह घोड़े और कलिहरपाल के शरीर के आर-पार निकल गये। घोड़ा तो तत्काल मर गया लेकिन राजकुमार अचेतनावस्था में जा पहुँचा। एक दिन बीता वह उसी अवस्था में पड़ा रहा लेकिन उसकी मृत्यु नहीं हुई। भयानक काली में माता विमला माता विमला गहरी नींद में सोयी थी। कलिहरपाल अपनी अचेतनावस्था के बल पर माँ के सपने में चला गया और माँ से बोला- “माँ, बैरियों ने मेरे राजधानी पहुँचने से पूर्व रास्ता रोक लिया है। मैं घायल होकर अचेतनावस्था में एक खाई में गिरा हूँ। आप मुझे यहाँ से बाहर निकालिये।” पुत्र की यह बात सुनकर माँ का सपना टूट गया। फिर वह सो न सकी और प्रात:काल ही धौल्या उड्यारी छोड़कर राजधानी की ओर चल दी। दो दिन दो रात पैदल चलकर वह जो राजधानी पहुँची और वहाँ राजदरबार में उसने बड़ी रानी को राजकुमार के खाई में गिरे होने की सूचना दी। लेकिन उस समय रानी के दरबार में वही सामन्त (ठेकेदार) बैठे थे, जिन्होने षड्यन्त्र करके राजकुमार को खाई में गिरा दिया था।
सिद्धबली जी (Sidhbali) की यात्रा अब एक नए मोड़ पर आ चुकी है, जहाँ उनका नाम सबकी जुबान पर था राजदरबार में बैठे इस सामन्तों ने रानी को स्त्री के आँसू और सपनों की बात कहकर भ्रमित कर दिया। इसलिए महारानी ने विमला की बातों पर विश्वास नहीं किया, इस पर रानी विमला रोती बिलखती फिर धौल्या उड्यारी लौट आयी। जहाँ बैठकर उसने गुरु गोरखनाथजी का ध्यान किया अपने पुत्र की रक्षा की प्रार्थना करने लगी। रानी की यह कातर वाणी सुनकर गुरु गोरखनाथ का हृदय पसीजने लगा। गुरु गोरखनाथ जी ने ध्यान लगाया और पाया कि कलिहरपाल एक खाई में पड़ा जीवन की अंतिम साँसे गिन रहा है। गुरु ने उसी समय अपने अन्य सिद्धनाथों का ध्यान किया और उन्हे आदेश दिया कि “आप लोग खाई में गिरे कलिहरपाल का शरीर उठाकर धौल्या उड्यारी ले आओ।” गुरु का आदेश सुनकर सारे संत आकाश मार्ग से उस स्थान पर पहुँचे जहाँ कि वह बली अपनी अंतिम साँसे गिन रहा था।
भस्म से जन्मा सिद्धबली (Sidhbali) | गुरु गोरखनाथ का दिव्य चमत्कार
वहाँ पहुँचकर सिद्धों ने कलिहरपाल को बाहर निकाला और उसे धौल्या उड्यारी ले आये। यह शरीर जब गुरु गोरखनाथ ने देखा वह तब तक शव बन चुका था। सर्वप्रथम गुरु गोरखनाथ ने उसे अपने नौ हाथ की जटा में बाँधकर धरती में पटका। फिर नौ हाथ के चिमटे से खूब पीटा, इस पर भी जब सिद्ध मंत्रों के द्वारा उस शरीर में चेतना नहीं लौटी तो उन्होने इसे पहले तो जल में भिगोया और बाद में अग्नि में भस्म कर दिया। यह कर्मसिद्धि इसी प्रकार चल रही थी जैसे कि पुराणकालीन महाराजा वेणू के मृत शरीर को मथकर ऋषि मुनियों ने महाराजा पृथु के रूप में जीवित किया था। गुरु गोरखनाथ के इस सिद्धिप्रयोग में सभी सिद्ध साथ दे रहे थे। कलिहरपाल का शरीर जैसे ही भस्मीभूत हुआ, गुरु गोरखनाथ ने अपने स्वर्णकुम्भ से अमृत जल निकालकर भस्मी पर छिड़का, रानी विमला और अन्य सिद्धों ने देखा कि “उस भस्मी से ऐसा सोलह वर्षीय दिव्य आभा वाला सिद्ध पुरुष उत्पन्न हुआ जिसके एक हाथ में कमण्डल, गले में रुद्राक्ष माला, कंधे पर झूलते धुंधराले केश, कटि प्रदेश में पीत मेखला और कौपीन (अंगोछा), गौरवर्ण माथे पर त्रिपुण्ड, दूसरे हाथ में त्रिमूल (तिमरु) का डंडा, कमर में बँधी भृंगी तथा पावों में खड़ाऊ पहने थे।
ऐसे दिव्य संन्यासी वेश वाले उस वटुक रूप किशोर ने प्रकट होते ही गुरु गोरखनाथ के चरणों में दण्डवत प्रणाम किया और गुरुगोरखनाथ ने उसे आठों सिद्धियों और नव निधियों की प्राप्ति का वरदान देकर रानी विमला से बोले “देवी! यह बालक अब आपका पुत्र नहीं, अपितु लोक कल्याण कर्त्ता के रूप में प्रसिद्ध सिद्ध होगा। चूंकि यह एक बली बालक के शरीर की भस्मी से उत्पन्न हुआ है इसलिए इसका नाम बली और अब हमारे द्वारा किये गये इस सिद्ध प्रयोग के परिणामस्वरूप उत्पन्न यह अब सिद्ध कहलायेगा। इसके पश्चात् गुरु गोरखनाथ ने उसे नाथ की पदवी न दे सिद्ध की पदवी दे कर धौल्या उड्यारी निकट ही खड़े पर्वत श्रृंग पर स्थूल और सूक्ष्म दोनों रूपों में निवास की आज्ञा दे दी।
आगे बढ़ते हैं, सिद्धबली (Sidhbali) जी की कथा में उधर राज्य की महारानी नी ने षडयन्त्रकारियों को देश निकाला दे दिया। “कलिहरपाल को उसका अधिकार मिले।” यह विचार कर महारानी जब अपनी अंगरक्षिणी सेना के साथ पुत्र को लेने धौल्या उड्यारी पहुँची तो वहां गुरु गोरखनाथ से उसकी भेंट हो गयी। रानी ने गुरु गोरखनाथ के चरणों में गिरकर सिद्धबली (Sidhbali) को देश का भावी नरेश बनाने की प्रार्थना करने लगी। रानी की यह विनती सुनकर गुरु गोरखनाथ बोले “महारानी ! यह सिद्धबली (Sidhbali) अब आपका पुत्र कलिहरपाल नहीं अपितु मेरा अंशभूत योगी बन गया है। अब इसे राज्यपाट से कोई मोह नहीं है, इसने जंगल में जन्म लिया, यह जंगल ही में पला और अब अमर होकर जंगल में ही रहेगा। यहीं रहकर यह संसार के दीन दुःखियों को आशीर्वाद देकर जग कल्याण करेगा। इसी शरीर में यह संसार का सम्राट बन गया है। उसे आप कुछ दिनों के लिए एक छोटे से राज्य का राजा बनाकर अन्याय करना चाहती है, इसलिए अब इसका मोह छोड़ो और इसे संसार का कल्याण करने दो।” यह सुन रानी संतुष्ट होकर अपने राज्य की ओर लौट गयी। गढ़वाल की इस जागर गाथा से स्पष्ट होता है कि सिद्धबली (Sidhbali) एक अमर सिद्ध हैं जो स्थूल और सूक्ष्म रूप में सिद्धस्थल में विद्यमान रहते हैं। गुरु गोरखनाथ द्वारा इस सिद्ध को उसी पर्वत श्रृंग पर रहने की आज्ञा दी गई जो वर्तमान में झंडी का डांडा कहलाता है। यहाँ से गुरुगोरखनाथ की तपस्थली दिखाई देती हैं इसलिए Sidhbali प्रत्येक क्षण और पल अपने गुरु की इस तपस्थली के दर्शन कर गुरु से आशीर्वाद और शक्ति प्राप्त करते हैं।
हनुमान और गोरखनाथ के बीच का रहस्यमय युद्ध|हनुमान और सिद्धबली (Sidhbali ): गढ़वाल की रक्षा के दो स्तंभ
एक बार गोरखनाथ जी अपने शिष्य के लिए धौल्या उड्यारी से त्रियादेश (जौनसार) की ओर चल दिये। जा वे सिद्धबली धाम (Sidhbali) के पास पहुंचे तो कुछ देर विश्राम करने लगे, वे जैसे ही ये विश्राम की मुद्रा में लेटे एक बूढ़ा बन्दर उन्हे पत्थर मारकर तंग करने लगा। उससे तंग आकर जैसे ही वे उसे भगाते, वह कुछ देर के लिए पेड़ पर चढ़ जाता, और जैसे गुरु गोरखनाथ आंख मुंदते, वह फिर उनके साथ छेड़खानी करने लगता। यही क्रिया जब बार-बार होने लगी तो गुरु गोरखनाथ ने अपने कमण्डल से जल निकाल कर उसके ऊपर फेंका। जैसे ही जल बन्दर के ऊपर पड़ा तो गोरखनाथ ने देखा कि बन्दर के स्थान पर बजरंग बली हनुमान खड़े है। हनुमान को देखकर गुरु गोरखनाथ को बड़ा क्रोध आया और उन्होने नौ हाथ का चिमटा और नौ हाथ की सांगल निकाल कर हनुमान पर दे मारी। इससे हनुमान ने भी आपा खो दिया और उन्होने भी अपनी गदा का प्रहार गुरु गोरखनाथ पर कर दिया। इस तरह दोनों में युद्ध छिड़ गया। लेकिन जब दोनों में कोई भी से पीछे नहीं हटा तो गुरु गोरखनाथ ने मन ही मन में सोचा कि “हम दोनों बिना कारण जाने आपस में क्यों लड़ रहे हैं?” फिर कारण जानने के लिए उन्होने हनुमान से पूछा “बजरंगबली! आप मेरा रास्ता क्यों रोक रहे हैं?”
हनुमान बोले ” महायोगी मैं यह जान गया हूँ कि आप अपने गुरु मस्त्येन्द्रनाथ को त्रियादेश की रानी के चंगुल से मुक्त करने के लिए जा रहे हैं। महायोगी बोले “इससे आपको क्या हानि हो रही है बजरंगबली ?” बजरंग बली ने उत्तर दिया “शायद आपको ज्ञात नहीं है, जैसे आप मत्स्येन्द्र नाथ को त्रिया देश से मुक्त करेंगे। अपने वचन के अनुसार मुझे त्रियादेश जाना पड़ेगा। जिससे मेरा अखण्ड ब्रह्मचर्यत्व समाप्त हो जायेगा।” गुरु गोरखनाथ बोले “बजरंगबली मैं स्वयं त्रिया देश जाकर गुरु मत्स्येन्द्र नाथ को रानी के बन्धन से मुक्त कराने के लिए जा रहा हूं।” “लेकिन मेरे वचन का क्या होगा महायोगी?” बजरंगबली बोले ।
‘आपका वचन सुरक्षित रहेगा, बजरंगबली। अब तक मत्स्येन्द्रनाथ की कृपा से महारानी ने दो पुत्रों को जन्म दिया है। जिनका नाम परशुराम और मीनराम है। पुत्रमोह से वशीभूत होकर वह अब किसी अन्य पुरुष को अपनी आसक्ति का शिकार नहीं बनायेगी।” गोरखनाथ ने कहा। लेकिन मैं अब यहां अकेले नहीं रह पाऊंगा।” हनुमान जी बोले। “बजरंगबली अब आप यहां पर भी अकेले नहीं रहेगें। मैं आपके साथ अपने ही अंश सिद्धबली को इस क्षेत्र की रक्षा में नियुक्त करता हूं। अब आप दोनों इस क्षेत्र के दुःख और दरिद्रता का मिलकर नाश करेंगे। यहां जो भी कोई कामना लेकर आयेगा आप दोनों उसके कामना पूर्ण करेंगे।
यह कहकर गुरु गोरखनाथ ने सिद्धबली (Sidhbali) का आहवान किया। सिद्धबली (Sidhbali ) उसी क्षण गुरु के समक्ष प्रकट होकर बोले, “मेरे लिए क्या आदेश है गुरुदेव ? सिद्धबली और बजरंगबली तुम तब तक इस क्षेत्र की रक्षा करते रहना जब तक मैं वापस नहीं आ जाता। ” यह सुनकर हनुमान और सिद्धबली (Sidhbali ) दोनों गुरु गोरखनाथ के चरणों में झुके गये। इसके बाद उन्होंने देखा कि गुरु के चरणों के स्थान पर पत्थर की दो पिण्डियाँ पड़ी हैं।
इसके पश्चात् गुरु गोरखनाथ त्रियादेश से अपने गुरु मत्स्येन्द्र नाथ को मुक्त कराकर अन्यत्र ले गये और वे आज तक उस स्थान में नहीं लौटे जहां पर वर्तमान सिद्धबली धाम (Sidhbali Mandir Kotdwar) है, इसीलिए सिद्ध और बजरंगबली तब से और अब तक, उन्हीं पिण्डियों का पूजन करते हुए गुरु गोरखनाथ की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
जैसा कि हम संकेत कर चुके है कि दक्षिण गढ़वाल के गोरख क्षेत्र में आज भी गुरु गोरखनाथ की चरण पादुकायें हैं। जिनका पूजन यहां का जनमानस दिनरात करता हुआ आ रहा है।
Sidhbali की जीवन यात्रा हमें यह सिखाती है कि सच्ची श्रद्धा और समर्पण से कोई भी व्यक्ति महानता की ओर बढ़ सकता है। उनकी तपस्या, बलिदान और संघर्ष ने उन्हें एक सम्मानित व्यक्तित्व बना दिया, जो आज भी लाखों लोगों के दिलों में बसते हैं। Sidhbali के जीवन की कहानी यह प्रमाणित करती है कि सही दिशा और संकल्प से किसी भी चुनौती को पार किया जा सकता है। Sidhbali की पूजा से जीवन में शांति और सफलता प्राप्त की जा सकती है, जो हमें बेहतर और संतुष्ट जीवन की ओर मार्गदर्शन करती है।
For more information, you can visit official site https://www.sidhbalibaba.com/
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